शुक्रवार, अप्रैल 01, 2011

दक्षिणेश्वर- जहां रामकृष्ण हुए परमहंस

समूचा विश्व इन्हे स्वामी विवेकानन्द के गुरू के रूप में मानता है। कोलकाता में उनकी आराधना का स्थल आज भी लोगों के लिये श्रद्धा का केन्द्र है। दक्षिणेश्वर मन्दिर के बारे में बता रही हैं कामाक्षी:

कोलकाता में हुगली के पूर्वी तट पर स्थित मां काली व शिव का प्रसिद्ध मन्दिर है दक्षिणेश्वर। कोलकाता आने वाले प्रत्येक सैलानी की इच्छा यहां दर्शन करने की अवश्य होती है। यह मन्दिर लगभग बीस एकड में फैला है। वास्तव में यह मन्दिरों का समूह है, जिनमें प्रमुख हैं- काली मां का मन्दिर, जिसे भवतारिणी भी कहते हैं। मन्दिर में स्थापित मां काली की प्रतिमा की आराधना करते-करते रामकृष्ण ने ‘परमहंस’ अवस्था प्राप्त कर ली थी। इसी प्रतिमा में उन्होंने मां के स्वरूप का साक्षात्कार कर, जीवन धन्य कर लिया था। पर्यटक भी इस मन्दिर में दर्शन कर मां काली व परमहंस की अलौकिक ऊर्जा व तेज को महसूस करने का प्रयास करते हैं।

इस मन्दिर का निर्माण कोलकाता के एक जमींदार राजचन्द्र दास की पत्नी रासमणी ने कराया था। सन 1847 से 1855 तक लगभग आठ वर्षों का समय और नौ लाख रुपये की लागत इसके निर्माण में आई थी। तब इसे ‘भवतारिणी मन्दिर’ कहा गया गया। परंतु अब तो यह दक्षिणेश्वर के नाम से ही प्रसिद्ध है। दक्षिणेश्वर अर्थात दक्षिण भाग में स्थित देवालय। प्राचीन शोणितपुर गांव अविभाजित बंगाल के दक्षिण भाग में स्थित है। यहां के प्राचीन शिव मन्दिर को लोगों ने दक्षिणेश्वर शिव मन्दिर कहना शुरू किया और कालांतर में यह स्थान ही दक्षिणेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज यह केवल बंगाल या भारत ही नहीं, सम्पूर्ण हिन्दु मतावलम्बियों के लिये एक पुनीत तीर्थ स्थल है।

मन्दिर परिसर में प्रवेश करते ही लगभग सौ फुट ऊंचे शिखर को देखकर ही अनुमान लग जाता है कि यही मुख्य मन्दिर है। इसकी छत पर नौ शिखर हैं, जिनके बीचोंबीच का शिखर सबसे ऊंचा है। इसी के नीचे बीस फुट वर्गाकार में गर्भगृह है। अन्दर मुख्य वेदी पर सुन्दर सहस्त्रदल कमल है, जिस पर भगवान शिव की लेटी हुई अवस्था में, सफेद संगमरमर की प्रतिमा है। इनके वक्षस्थल पर एक पांव रखे कालिका का चतुर्भुज विग्रह है। गले में नरमुंडों का हार पहने, लाल जिह्वा बाहर निकाले और मस्तक पर भृकुटियों का मध्य ज्ञान नेत्र। प्रथम दृष्टि में तो यह रूप अत्यन्त भयंकर लगता है। पर भक्तों के लिये तो यह अभयमुद्रा वरमुद्रा वाली, करुणामयी मां है।

काली मन्दिर के उत्तर में राधाकान्त मन्दिर है, इसे विष्णु मन्दिर भी कहते हैं। इस मन्दिर पर कोई शिखर नहीं है। मन्दिर के गर्भ गृह में कृष्ण भगवान की प्रतिमा है। श्यामवर्णी इस प्रतिमा के निकट ही चांदी के सिंहासन पर अष्टधातु की बनी राधारानी की सुन्दर प्रतिमा है। राधाकृष्ण के इस रूप को यहां जगमोहन-जगमोहिनी कहते हैं। काली मन्दिर के दक्षिणी ओर ‘नट-मन्दिर’ है। इस पर भी कोई शिखर नहीं है। भवन के चारों ओर द्वार बने हैं। मन्दिर की छत के मध्य में माला जपते हुए भैरव हैं। नट मन्दिर के पीछे की ओर भंडारगृह व पाकशाला है। दक्षिणेश्वर के प्रांगण के पश्चिम में एक कतार में बने बारह शिव मन्दिर हैं। यह देखने में कुछ अलग से कुछ विशिष्ट से लगते हैं क्योंकि इन मन्दिरों का वास्तु शिल्प बंगाल प्रान्त में बनने वाली झोंपडियों सरीखा है। वैसे ही धनुषाकार गुम्बद इनके ऊपर बने हैं। सभी मन्दिर एक आकार के हैं। इनके दोनों ओर चौडी सीढियां बनी हैं। इन सभी में अलग-अलग पूजा होती है। इनके नाम हैं- योगेश्व्वर, यत्नेश्वर, जटिलेश्वर, नकुलेश्वर, नाकेश्वर, निर्जरेश्वर, नरेश्वर, नंदीश्वर, नागेश्वर, जगदीश्वर, जलेश्वर और यज्ञेश्वर। मन्दिरों के मध्य भाग में स्थित चांदनी ड्योढी से एक रास्ता हुगली घाट की ओर जाता है। जहां से हुगली का विस्तार देखते ही बनता है। मन्दिर प्रांगण के बाहर भी महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक दर्शनीय स्थान हैं जहां पर्यटक अवश्य ही जाते हैं। उत्तर की ओर बकुल तला घाट के निकट ‘पंचवटी’ नामक स्थान है। उस समय यहां बरगद, पीपल, बेल, आंवला और अशोक पांच पेड थे। परमहंस अक्सर यहां आते थे और यहां के सुरम्य वातावरण में वे समाधिस्थ हो जाया करते थे।

प्रांगण के सामने ही एक कोठी है जिसमें परमहंस रामकृष्ण निवास करते थे। यहीं पर उन्होनें अनेक वर्षों तक साधना की। उन्होंने वैष्णव, अद्वैत और तान्त्रिक मतों के अतिरिक्त इस्लाम व ईसाई मत का भी गहन अध्ययन किया और ईश्वर सर्वतोभाव की खोज की। कोठी के पश्चिम में नौबतखाना है। जहां रामकृष्ण की माता देवी चन्द्रामणी निवास करती थी। बाद के दिनों में मां शारदा ( परमहंस की अर्धांगिनी) भी वहीं रहने लगीं। कुछ वर्षों बाद रामकृष्ण, प्रांगण के उत्तरपूर्व में बने एक कमरे में रहने लगे थे जहां वे अंतकाल तक रहे। अब यहां एक लघु संग्रहालय है। यहीं दक्षिणेश्वर में एक युवक उनसे मिला था और उनके प्रभाव से, संसार को राह दिखाने विवेकानंद बन गया।

सामने ही हुगली के पश्चिमी तट पर ‘वेलूर मठ’ है। जहां रामकृष्ण मिशन का कार्यालय है। स्वामी विवेकानंद के बाद भी दक्षिणेश्वर में संत महात्माओं का आना जाना चलता रहा और यह स्थान अध्यात्म व भक्ति का प्रमुख केन्द्र बन गया।

लेख: कामाक्षी (दैनिक जागरण यात्रा, 26 मार्च 2006)


आसपास:

1 टिप्पणी:

  1. i am regular reader of your blog. your new blog is a good attepmpt. I always wait for your new blog. i do type in HIndi, so sorry. Please try to send your posts daily.

    Thanks & regards
    Devesh Kulshrestha
    M-9634081286

    जवाब देंहटाएं