शनिवार, अप्रैल 30, 2011

गोल्डन चैरियट

लेख: उपेन्द्र स्वामी

मोटी जेबों वाले सैलानियों के लिये एक के बाद एक शाही ट्रेनें पटरियों पर उतर रही हैं। हालांकि इनमें सफर करने वालों में विदेशी सैलानियों की तादाद ज्यादा होती है क्योंकि भारतीय सैलानियों के हिसाब से ये महंगी हैं।

भारत में लग्जरी ट्रेनों की ग्राहकी तेजी से बढ रही है। यही वजह है कि मोटी जेबों वाले खास सैलानियों के लिये एक के बाद एक नई शाही ट्रेनें पटरियों पर उतर रही हैं। पैलेस ऑन व्हील्स के नये आधुनिक संस्करण को उतारने की तैयारी चल ही रही है। उधर पंजाब में भी एक लग्जरी ट्रेन लाने की चर्चा है। इन सबके बीच कर्नाटक टूरिज्म ने गोल्डन चैरियट नाम से लग्जरी ट्रेन पटरियों पर उतार दी है। दक्षिण भारत की यह पहली लग्जरी ट्रेन है। ट्रेन डेक्कन ओडीसी और पैलेस ऑन व्हील्स की ही तर्ज पर है। शानो-शौकत में भी और किराये में भी। जाहिर है निशाने पर विदेशी सैलानी ही ज्यादा हैं।

यह ट्रेन कर्नाटक व गोवा के कई पर्यटन स्थलों की फाइव स्टार सैर कराएगी। आइटी सिटी बंगलुरू से शुरू होकर हफ्ते भर की यात्रा मैसूर, काबिनी, हसन, बेलूर, श्रवणबेलगोला, हम्पी, अईहोल, पट्टाडकल, बादामी और गोवा होते हुए फिर से बंगलुरू पर खत्म होती है। ठीक एक ऐसी ही यात्रा बंगलुरू के बजाय गोवा से शुरू होकर गोवा पर खत्म होती है। बंगलुरू से यह हर सोमवार को और गोवा से हर रविवार को शुरू होती है। विश्व धरोहर के रूप में मान्य हम्पी में स्थित पत्थर के रथ के नाम पर ही इस ट्रेन को गोल्डन चैरियट नाम दिया गया है।

ट्रेन की बनावट और साज-सज्जा की बात करें तो इसमें भी राजसी छाप सब तरफ है। मैसूर व होयसला शिल्प का मुख्य तौर पर इसमें इस्तेमाल किया गया है। ट्रेन के कोचों के नाम कर्नाटक पर शासन करने वाले 11 राजवंशों- कदंब, होयसला, राष्ट्रकूट, गंगा, चालुक्य, बहमनी, आदिलशाही, संगमा, षठवष्णा, यदुकुला व विजयनगर के नाम पर रखे गये हैं। हर कोच पूरी तरह एयरकंडीशंड है। हर कोच में वाइ-फाइ, एलसीडी टीवी, डीवीडी, अल्मारी, ड्रेसिंग टेबल, राइटिंग डेस्क, प्राइवेट बाथरूम और बाकी सहूलियतें मौजूद हैं। ट्रेन में दो रेस्तरां कोच नला व रुचि, एक बार कोच मदिरा, एक कांफ्रेंस कोच, स्पा व आयुर्वेदिक मसाज की सुविधा वाला एक जिम कोच भी है।

बात करें किराये की तो उसे दो सीजन में बांटा गया है- अक्टूबर से मार्च तक का व्यस्त सीजन और अप्रैल से सितम्बर तक का सुस्त सीजन जिसमें किराये थोडे कम हो जाते हैं। कम्पार्टमेंट सिंगल, डबल व ट्रिपल तीनों श्रेणियों में हैं। इस तरह एक रात का प्रति व्यक्ति किराया 240 डॉलर (11300 रु.) से शुरू होकर 485 डॉलर (19200 रु.) तक है। सात रात और आठ दिन के पूरे सफर का प्रति व्यक्ति किराया 1660 डॉलर (66600 रु.) से शुरू होकर 3395 डॉलर (135000 रु.) तक है। क्रिसमस व नये साल के मौके पर किराये में दस फीसदी सरचार्ज जुड जायेगा। ट्रेन चूंकि अभी सैलानियों के लिये पेश ही हुई है इसलिये इसकी सुविधाओं के बारे में लोगों की राय सामने आने में थोडा वक्त लगेगा।

लेकिन जहां तक सफर की बात है तो उसमें खासी विविधता है। आइटी सिटी से शुरू होकर मैसूर व श्रीरंगपट्टम के राजमहलों की शानो-शौकत, काबिनी के वन्य जीव, वृंदावन गार्डन की बेमिसाल खूबसूरती, बेलूर व श्रवणबेलगोला जैसे धार्मिक स्थल, हम्पी जैसे प्राचीन सभ्यता के केन्द्र, बदामी, पट्टाडकल व आइहोल जैसे बेमिसाल शिल्प के केन्द्र और गोवा के समुद्र की खूबसूरती- सबकुछ अपने में समेटता है। इसलिये केवल इस विविधता के लिहाज से देखा जाये तो यह सफर अपने आप में शानदार है। किसी शाही रेलगाडी की कामयाबी में दोनों बातों की खासी भूमिका होती है- ट्रेन में मिलने वाली सुविधाएं और उसमें सैर की पैकेजिंग। भारत में दोनों के ही लिये उपयुक्त स्थितियां हैं। भौगोलिक विशालता, विविधता, रेल नेटवर्क, मेहमाननवाजी, सब इसमें योगदान देते हैं। ऐसे में कोई हैरत नहीं कि आने वाले सालों में देश के बाकी हिस्सों में भी ऐसी ही शाही रेलगाडियां पर्यटकों को घुमाती नजर आने लगे। आखिर कोई सैलानी किसी लग्जरी रेलगाडी में सफर करना इसीलिये पसंद करता है क्योंकि वह एकमुश्त दाम चुकाकर तमाम चिन्ताओं से मुक्त हो पूरी तसल्ली व पूरे ठाट-बाट के साथ घूमने का मजा लेना चाहता है। सफर व घूमना, दोनों में ऐसा मजा हो तो फिर बात ही क्या है।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 20 मार्च 2008 को प्रकाशित हुआ था।


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शुक्रवार, अप्रैल 29, 2011

जनजातीय संग्रहालय- देखने चलें अतीत के जनजीवन को

लेख: ललित मोहन कोठियाल

संग्रहालय कहीं न कहीं हमारी संस्कृति का प्रतिबिम्ब होते हैं इसलिये उनका पर्यटन महत्व कम नहीं होता। कभी संग्रहालय इतिहास, पुरातत्व, मानव विज्ञान विषयों तक ही सीमित थे लेकिन बीसवीं सदी में जब नये-नये विषयों को लेकर व्यवस्थित रूप से संग्रहालय बनाये जाने लगे तो संग्रहालयों की परिभाषा कई बार गढी गई। विश्व की सारी जातियां व समाज कभी विकास के उसी क्रम से गुजरे हैं जहां आज आदिवासी समाज है। प्रकृति के साथ तालमेल के साथ सदियों से रह रहे आदिवासियों का आज भी अपना आत्मनिर्भर संसार है जहां मानव जनजीवन की पुरानी झलक देखने को मिलती है। यदि आप मध्य भारत के भ्रमण पर हों और अतीत के जनजीवन को देखने के इच्छुक हों तो यहां के कुछ नगरों में स्थापित मानव या जनजातीय संग्रहालयों की सैर से आपकी सारी जिज्ञासाओं का समाधान मिल जायेगा।

बदलती मानव जीवन शैली के प्रमाण संरक्षित व सुरक्षित रह सके इसलिये विश्व के अन्य भागों की भांति भारत में संग्रहालयों की स्थापना की गई। इनमें से अधिकतर उन क्षेत्रों में केंद्रित हैं जहां पर आदिवासी जनसंख्या का अधिक प्रवास है। चूंकि मध्य भारत के छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश, उडीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखण्ड आदि राज्यों में आदिवासियों की बडी आबादी रहती है इसलिये यहां पर स्थापित मानवविज्ञान संग्रहालय, आदिवासी व जनजातीय संग्रहालयों में विकास क्रम के सबसे अधिक साक्ष्य देखने को मिलते हैं। यदि आप पर्यटन के साथ मानवविज्ञान को लेकर अपनी जानकारी में वृद्धि करना चाहते हैं तो ऐसे छह संग्रहालयों को देखा जा सकता है। इनमें से तीन मध्य प्रदेश में हैं जिनमें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय व जनजातीय संग्रहालय राजधानी भोपाल व बादलभोई आदिवासी संग्रहालय राज्य के दक्षिणी जिले छिंदवाडा में हैं। मध्य भारत के आदिवासी जनजीवन पर रोशनी डालने वाले बाकी तीन संग्रहालय बस्तर के जगदलपुर, विशाखापटनम के अराकू व महाराष्ट्र के पुणे में हैं। आइये इनका थोडा जायजा लिया जाये।

दर्जन भर संग्रहालयों वाले भोपाल में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय सबसे प्रमुख है। यह एशिया में मानव जीवन को लेकर बनाया गया विशालतम संग्रहालय है। इसमें भारतीय परिप्रेक्ष्य में मानव जीवन के कालक्रम को दिखाया गया है। भोपाल की श्यामला पहाडी पर 200 एकड क्षेत्रफल में स्थापित इस संग्रहालय के दो भागों में एक भाग खुले आसमान के नीचे है तो दूसरा भव्य भवन में। मुक्ताकाश प्रदर्शनी में भारत की विविधता को दर्शाया गया है। इसमें हिमालयी, तटीय, रेगिस्तानी व जनजातीय निवास के अनुसार वर्गीकृत कर प्रदर्शित किया गया है। इसमें मध्य भारत की जनजातीयों को भी पर्याप्त स्थान मिला है जिनके अनूठे रहन-सहन को यहां पर देखा जा सकता है। इस परिसर के खुले आकाश के नीचे आदिवासियों के आवास हैं, जहां पर उनके बर्तन, रसोई, कामकाज के उपकरण, अन्न भण्डार हैं। परिवेश को हस्तशिल्प, देवी देवताओं की मूर्तियों, स्मृति चिन्हों से सजाया गया है। बस्तर दशहरे का रथ भी यहां दिख जाता है जो आदिवासियों और वहां के राजपरिवार की परम्परा का एक हिस्सा है। नमूनों के खुले में वास्तविक रूप में प्रदर्शित करने की बात आसानी से समझी जा सकती है।

भीतरी संग्रहालय भवन काफी विशाल है जिसका स्थापत्य अनूठा है। यह संग्रहालय ढालदार भूमि पर 10 हजार वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में बना है। देश के विभिन्न भागों से जुटाए गये साक्ष्यों को भी यहां रखा गया है। इस संग्रहालय में विभिन्न समाजों के जनजीवन की बहुरंगी झलक देखने को मिलती है। इसमें अलग-अलग क्षेत्रों के परिधान व साजसज्जा, आभूषण, संगीत के उपकरण, पारंपरिक कला, हस्तशिल्प, शिकार, मछली मारने के उपकरण, कृषि उपकरण, औजार व तकनीकी, पशुपालन, कताई व बुनाई के उपकरण, मनोरंजन, उनकी कला से जुडे नमूनों को रखा गया है। पहले यह संग्रहालय 1977 में नई दिल्ली के बहावलपुर हाउस में खोला गया था किंतु दिल्ली में पर्याप्त जमीन व स्थान के अभाव में इसे भोपाल में बनाया गया। चूंकि प्रस्ताव श्यामला पहाडी के ऐसे भाग में स्थापित करने का था जहां पहले से ही प्रागैतिहासिक काल की कुछ प्रस्तर पर बनी कलाकृतियां थीं तो अंतिम रूप से इसे वहां बनाने का निर्णय लिया गया।

भोपाल में राज्य आदिवासी संग्रहालय भी है। यह भी श्यामला पहाडी पर है और आदिम जाति अनुसंधान केंद्र के परिसर में है। इस संस्थान की स्थापना 1954 में छिंदवाडा में कर दी गई थी किंतु किसी केन्द्रीय स्थान में इसकी उपयोगिता को देखते हुए 1965 में इसे छिंदवाडा से भोपाल स्थानांतरित कर दिया गया। छत्तीसगढ राज्य के गठन से पूर्व में इसमें वहां की जनजातियां भी शामिल थीं किंतु राज्य बनने के बाद इस संग्रहालय का क्षेत्र कुछ कम हो गया। राज्य की तकरीबन 40 जनजातियों के आर्टिफैक्टों को यहां रखा जा रहा है जिनमें सहरिया, भील, गोंड, भरिया, कोरकू, प्रधान, मवासी, बैगा, पनिगा, खैरवार, कोल, पाव, भिलाला, बारेला, पटेलिया, डामोर आदि शामिल है।

यदि आप पातालकोट जा रहे हों तो छिंदवाडा के आदिवासी संग्रहालय को देखना न भूलें जो जनजातीय संग्रहालयों में सबसे पुराना है। इसमें अविभाजित मध्य प्रदेश की 46 जनजातियों की जीवन शैली, सांस्कृतिक धरोहर, प्रतीक चिन्हों और कला शिल्प को प्रदर्शित किया गया है।

अब चलते हैं छत्तीसगढ राज्य के ठेठ आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर, जिसका केन्द्र जगदलपुर में है- क्षेत्रीय मानवविज्ञान संग्रहालय। चित्रकोट रोड पर धर्मपुरा के समीप इस संग्रहालय में बस्तर ही नहीं अपितु आसपास के राज्यों के जनजातीय जनजीवन का साक्षात्कार किया जा सकता है। यह संग्रहालय 1972 में अस्तित्व में आया। इसकी स्थापना से पूर्व यहां पर भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण का क्षेत्रीय केंद्र खोला गया जिसके अधीन संग्रहालय को स्थापित करने की योजना बनी। इस संग्रहालय का क्षेत्र निर्धारण करने के बाद यहां बसी जनजातियों को चिन्हित करने में अधिक समय लगा। जनजातियों के रहन-सहन से जुडी सामग्रियों के नमूनों को इकट्ठा करने का चुनौतीपूर्ण कार्य पांच साल तक चला और तब जाकर इसे 1977 में जनता को समर्पित किया गया।

चार एकड भूमि पर फैले इस संग्रहालय में उडीसा के जनजातीय बहुल जिलों कोरापुट व मलकानगिरी व महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले तक की जनजातियां भी शामिल हैं। यहां अबूझमाडिया, हल्बी, बाइसन हार्न माडिया, भुरिया, भरता देउरला, गडवा, घ्रुवा सहित अनेकानेक जनजातियों की सामग्रियों को एक साथ दिखाया गया है। एल्विन के बस्तर की जनजातियों पर शोध को देखते हुए इस ब्रिटिश मिशनरी के नाम से छत्तीसगढ पर्यटन विकास निगम सुप्रसिद्ध चित्रकोट प्रपात के समीप 2 करोड की लागत से अलग से आदिवासी संग्रहालय बनाने जा रहा है जिसमें एल्विन द्वारा संग्रहीत उन साक्ष्यों को रखने की भी योजना है जो देश में इधर-उधर बिखरे हैं।

अराकू और पुणे के संग्रहालय:

आंध्र प्रदेश के प्रमुख हिल स्टेशन अराकू का जनजातीय संग्रहालय पर्यटन महत्व का है। यह संग्रहालय हालांकि बहुत बडा तो नहीं है, प्रवेश की कम सरकारी औपचारिकताओं के कारण व सुगन स्थान पर होने से यहां पर पर्यटन सीजन के दिनों में दिन भर मेला सा लगा रहता है। इसकी खासियत इसकी आसान पहुंच, आसान प्रवेश नियम, अनूठा डिजाइन तो है ही साथ में इसमें आदिवासी जनजीवन की झलक का प्रस्तुतिकरण भी बेहद प्रभावी है। इससे समझ में पूरी बात आ जाती है। गोलाकार संरचना लिये यह संग्रहालय दो मंजिल का है। इसमें राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्र के जनजीवन को दर्शाया गया है।

उधर महाराष्ट्र में भी लगभग 72 लाख की आबादी जनजातीय श्रेणी में आती है। जनजातीय जनसंख्या के हिसाब से महाराष्ट्र देश में तीसरा स्थान रखता है। राज्य के आदिवासियों पर केंद्रित जनजातीय संस्कृति संग्रहालय पुणे में स्थापित है। हालांकि अभी यह एक पुराने भवन पर चल रहा है। इसका संचालन जनजातीय शोध व प्रशिक्षण संस्थान महाराष्ट के अधीन है। पुणे के इस संग्रहालय में लगभग ढाई हजार के आर्टीफैक्टों को संग्रहीत किया गया है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इन संग्रहालयों के समय रहते बनने से काफी कुछ साक्ष्य बचे रह गये जोकि हमें कल्पनालोक से हटकर उस वास्तविकता को करीब से देखने का एक मंच प्रदान करते हैं जिसके बारे में आमतौर पर हम केवल सुनते-पढते रहे हैं।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 24 फरवरी 2008 को प्रकाशित हुआ था।



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गुरुवार, अप्रैल 28, 2011

किब्बर- चलें सबसे ऊंचे गांव

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 24 फरवरी 2008 को प्रकाशित हुआ था।

प्रकृति के भी अजीब रंग हैं। एक ही जगह किसी के लिये आकर्षण का केंद्र होती है तो किसी के लिये निष्ठुरता का प्रतीक। आखिर लगभग पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर बसे किसी गांव की जिंदगी क्या होगी। जी. बी. सिंह का आलेख:

किब्बर की धरती पर बारिश का होना किसी अजूबे से कम नहीं होता। बादल यहां आते तो हैं लेकिन शायद इन्हें बरसना नहीं आता और ये अपनी झलक दिखाकर लौट जाते हैं। एक तरह से बादलों को सैलानियों का खिताब दिया जा सकता है जो घूमते, टहलते इधर घाटियों में निकल आते हैं और कुछ देर विश्राम कर पर्वतों के दूसरी ओर रुख कर लेते हैं। यही वजह है कि किब्बर में बारिश हुए महीनों बीत जाते हैं। यहां के बाशिंदे सिर्फ बर्फ से साक्षात्कार करते हैं और बर्फ भी इतनी कि कई-कई फुट मोटी तहें जम जाती हैं। जब बर्फ पडती है तो किब्बर अपनी ही दुनिया में कैद होकर रह जाता है और गर्मियों में धूप निकलने पर बर्फ पिघलती है तो किब्बर गांव सैलानियों की चहल-कदमी का केंद्र बन जाता है।

समुद्र तल से 4850 मीटर की ऊंचाई पर स्थित किब्बर गांव में खडे होकर यूं लगता है मानो आसमान ज्यादा दूर नहीं है। बस थोडा सा हवा में ऊपर उठो और आसमान छू लो। यहां खडे होकर दूर-दूर तक बिखरी मटियाली चट्टानों, रेतीले टीलों और इन टीलों पर बनी प्राकृतिक कलाकृतियों से रूबरू हुआ जा सकता है। लगता है कि इस धरती पर कोई अनाम कलाकार आया होगा जिसने अपने कलात्मक हाथों से इन टीलों को कलाकृतियों का रूप दिया और फिर इन कलाकृतियों में रूह फूंककर यहां से रुखसत हो गया। सैलानी जब इन टीलों से मुखातिब होते हैं तो इनमें बनी कलाकृतियां उनसे संवाद स्थापित करने को आतुर प्रतीत होती है। बहुत से सैलानी इन कलाकृतियों और टीलों को अपने कैमरे में उतार कर अपने साथ ले जाते हैं।

किब्बर गांव हिमाचल प्रदेश के दुर्गम जनजातीय क्षेत्र स्पीति घाटी में स्थित है, जिसे ‘शीत मरुस्थल’ के नाम से भी जाना जाता है। गोंपाओं और मठों की इस धरती में प्रकृति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं। कभी घाटियों में फिसलती धूप देखते ही बनती है तो कभी खेतों में झूमती फसलें मन मोह लेती हैं। कभी यह घाटी बर्फ के दोशाले में दुबक जाती है तो कभी बादलों के टुकडे यहां के खेतों और घरों में बगलगीर होते दिखते हैं। घाटी में कहीं सपाट बर्फीला रेगिस्तान है तो कहीं हिमशिखरों में चमचमाती झीलें।

किब्बर गांव में पहुंचना भी आसान नहीं है। कुंजम दर्रे को नापकर सैलानी स्पीति घाटी में दस्तक देते हैं। इसके बाद 12 किलोमीटर का रास्ता काफी दुरूह है, लेकिन ज्यों ही लोसर गांव में पहुंचते हैं, शरीर ताजादम हो उठता है। स्पीति नदी के दायीं ओर स्थित लोसर, स्पीति घाटी का पहला गांव है। लोसर से स्पीति उपमण्डल के मुख्यालय काजा की दूरी 56 किलोमीटर है और रास्ते में हंसा, क्यारो, मुरंग, समलिंग, रंगरिक जैसे कई खूबसूरत गांव आते हैं। काजा से किब्बर 20 किलोमीटर दूर है। यहां के लोग नाचगानों के बहुत शौकीन हैं। यहां के लोक नृत्यों का अनूठा ही आकर्षण है। यहां की युवतियां जब अपने अनूठे परिधान में नृत्यरत होती हैं तो नृत्य देखने वाला मंत्रमुग्ध हो उठता है। ‘दक्कांग मेला’ यहां का मुख्य उत्सव है जिसमें किब्बर के लोकनृत्यों के साथ-साथ यहां की अनूठी संस्कृति से भी साक्षात्कार किया जा सकता है।

किब्बर वासियों का पहनावा भी निराला है। औरतें और मर्द दोनों ही चुस्त पायजामा पहनते हैं। सर्दी से बचने के लिये पायजामे को जूते के अन्दर डालकर बांध दिया जाता है। इस जूते को ‘ल्हम’ कहा जाता है। इस जूते का तला तो चमडे का होता है और ऊपरी हिस्सा गर्म कपडे से निर्मित होता है। गांव की औरतों के मुख्य पहनावे हैं- हुजुक, तोचे, रिधोय, लिगंचे और शमों। सर्दियों में यहां की औरतें ‘लोम’, फर की एक खूबसूरत टोपी पहनती हैं। इसे शमों कहा जाता है। गांव के लोग गहनों के भी शौकीन हैं।

किब्बर गांव में शादी की परम्पराएं भी निराली हैं। प्राचीन समय से ही यहां शादी की एक अनूठी प्रथा रही है। इस प्रथा के अनुसार अगर किसी युवती को कोई लडका पसंद आ जाये तो वह युवती से किसी एकांत स्थल में मिलता है और उसे कुछ धनराशि भेंट करता है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘अंग्या’ कहा जाता है। यदि लडकी इस भेंट को स्वीकार कर ले तो समझा जाता है कि वह शादी के लिये रजामंद है। लेकिन अगर लडकी भेंट स्वीकार करने से इंकार कर दे तो यह उसकी विवाह के प्रति अस्वीकृति मानी जाती है।

किब्बर में आकर जब सैलानी यहां की प्राकृतिक छटा, अनूठी संस्कृति, निराली परम्पराओं और बौद्ध मठों से रूबरू होते हैं तो वे स्वयं को एक नई दुनिया में पाते हैं। किब्बर में एक बार की गई यात्रा की स्मृतियां ताउम्र के लिये उनके मानसपटल पर अंकित हो जाती हैं।

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बुधवार, अप्रैल 27, 2011

हिमालयी प्रकृति से एकाकार कराता है चोपता तुंगनाथ

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 24 फरवरी 2008 को प्रकाशित हुआ था।


हिमालय इतना विशाल है कि उसके हर हिस्से में अलग खूबसूरती झलकती है। मजेदार बात यह भी है कि किसी एक हिस्से की खूबसूरती भी बदलते मौसम के साथ नया रूप लेती जाती है। गढवाल में चोपता तुंगनाथ की खूबसूरती बयां कर रहे हैं रविशंकर जुगरान:

उत्तराखण्ड की हसीन वादियां किसी भी पर्यटक को अपने मोहपाश में बांध लेने के लिये काफी हैं। कलकल बहते झरने, पशु-पक्षी, तरह तरह के फूल, कुहरे की चादर में लिपटी ऊंची पहाडियां और मीलों तक फैले घास के मैदान, ये नजारे किसी भी पर्यटक को स्वप्निल दुनिया का एहसास कराते हैं। चमोली की शांत फिजाओं में ऐसा ही एक स्थान है चोपता तुंगनाथ। बारह से चौदह हजार फुट की ऊंचाई पर बसा ये इलाका गढवाल हिमालय की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है।

जनवरी-फरवरी के महीनों में आमतौर पर बर्फ की चादर ओढे इस स्थान की सुन्दरता जुलाई-अगस्त के महीनों में देखते ही बनती है। इन महीनों में यहां मीलों तक फैले मखमली घास के मैदान और उनमें खिले फूलों की सुन्दरता देखने लायक होती है। इसीलिये अनुभवी पर्यटक इसकी तुलना स्विट्जरलैंड से करने में भी नहीं हिचकते। सबसे खास बात ये है कि पूरे गढवाल क्षेत्र में यह अकेला क्षेत्र है जहां बस द्वारा बुग्यालों (ऊंचाई वाले स्थानों पर मीलों तक फैले घास के मैदान) की दुनिया में सीधे प्रवेश किया जा सकता है। यानी यह असाधारण क्षेत्र श्रद्धालुओं और सैलानियों की साधारण पहुंच में है।

ऋषिकेश से गोपेश्वर या फिर ऋषिकेश से ऊखीमठ होकर यहां पहुंचा जा सकता है। ये दोनों स्थान बेहतर सडक मार्ग से जुडे हुए हैं। गोपेश्वर से चोपता चालीस किलोमीटर और ऊखीमठ से चौबीस किलोमीटर की दूरी पर है। मई से नवम्बर तक यहां की यात्रा की जा सकती है। हालांकि यात्रा बाकी समय में भी की जा सकती है लेकिन बर्फ गिरी होने की वजह से मोटर का सफर कम और ट्रेक ज्यादा होता है। जाने वाले लोग जनवरी व फरवरी के महीने में भी यहां की बर्फ का मजा लेने जाते हैं। स्विट्जरलैंड का अनुभव करने के लिये तो यह जरूरी है ही।

यह पूरा पंचकेदार का क्षेत्र कहलाता है। ऋषिकेश से श्रीनगर गढवाल होते हुए अलकनंदा के किनारे-किनारे सफर बढता जाता है। रुद्रप्रयाग पहुंचने पर यदि ऊखीमठ का रास्ता लेना हो तो अलकनंदा को छोडकर मंदाकिनी घाटी में प्रवेश करना होता है। यहां से मार्ग संकरा है। इसलिये चालक को गाडी चलाते हुए काफी सावधानी बरतनी होती है। मार्ग अत्यंत लुभावना और खूबसूरत है। आगे बढते हुए अगस्त्यमुनि नामक एक छोटा सा कस्बा है जहां से हिमालय की नंदाखाट चोटी के दीदार होने लगते हैं। चोपता की ओर बढते हुए रास्ते में बांस और बुरांश का घना जंगल और मनोहारी दृश्य पर्यटकों को लुभाते हैं।

चोपता समुद्र तल से बारह हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से तीन किलोमीटर की पैदल यात्रा के बाद तेरह हजार फुट की ऊंचाई पर तुंगनाथ मन्दिर है, जो पंचकेदारों में एक केदार है। सच पूछिये तो चोपता भ्रमण का असली मजा तुंगनाथ जाये बिना नहीं उठाया जा सकता। चोपता से तुंगनाथ तक तीन किलोमीटर का पैदल मार्ग बुग्यालों की सुन्दर दुनिया से साक्षात्कार कराता है। यहां पर प्राचीन शिव मन्दिर है। इस प्राचीन शिव मन्दिर के दर्शन करने के बाद यदि आप हिम्मत जुटा सकें तो मात्र डेढ किलोमीटर की ऊंचाई चढने के बाद चौदह हजार फीट पर चंद्रशिला नामक चोटी है… जहां ठीक सामने छू लेने लायक हिमालय का विराट रूप किसी को भी हतप्रभ कर सकता है। चारों ओर पसरे सन्नाटे में ऐसा लगता है मानों आप और प्रकृति दोनों यहां आकर एकाकार हो उठे हों।

तुंगनाथ से नीचे जंगल की खूबसूरत रेंज और घाटी का जो नजारा उभरता है, वो बहुत ही अनूठा है। चोपता से करीब आठ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद देवरिया ताल पहुंचा जा सकता है जोकि तुंगनाथ मन्दिर के दक्षिण दिशा में है। इस ताल की कुछ ऐसी विशेषता है जो इसे और सरोवरों से विशिष्टता प्रदान करती है। इस पारदर्शी सरोवर में चौखम्भा, नीलकण्ठ आदि हिमाच्छादित चोटियों के प्रतिबिम्ब स्पष्ट नजर आने लगते हैं। इस सरोवर का कुल व्यास पांच सौ मीटर है। इसके चारों ओर बांस व बुरांश के सघन वन हैं तो दूसरी तरफ एक खुला सा मैदान है।

चोपता से गोपेश्वर जाने वाले मार्ग पर कस्तूरी मृग प्रजनन फार्म भी है। यहां पर पर्यटक कस्तूरी मृगों की सुन्दरता को करीब से निहारते हैं। मार्च-अप्रैल के महीने में इस पूरे मार्ग में बुरांश के फूल अपनी अनोखी छटा बिखेरते हैं। जनवरी-फरवरी के महीने में यह पूरा इलाका बर्फ से ढका रहता है। चोपता के बारे में ब्रिटिश कमिश्नर एटकिंसन ने कहा था कि जिस व्यक्ति ने अपनी जिंदगी में चोपता नहीं देखा उसका इस पृथ्वी पर जन्म लेना व्यर्थ है। एटकिंसन की यह उक्ति भले ही कुछ लोगों को अतिरेकपूर्ण लगे लेकिन यहां की खूबसूरती बेमिसाल है, इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता।

कब व कैसे

सडक मार्ग: आप इन दो रास्तों में एक को चुन सकते हैं- ऋषिकेश से गोपेश्वर होकर या ऋषिकेश से ऊखीमठ होकर। ऋषिकेश से गोपेश्वर की दूरी 212 किलोमीटर है और ऊखीमठ की दूरी 178 किलोमीटर है। गोपेश्वर से चोपता 40 किलोमीटर और ऊखीमठ से 24 किलोमीटर है, जोकि सडक मार्ग से जुडा है।

यातायात सुविधा: ऋषिकेश से गोपेश्वर और ऊखीमठ के लिये बस सेवा उपलब्ध हैं। इन दोनों स्थानों से चोपता के लिये बस सेवा के अलावा टैक्सी व जीप भी बुक कराई जा सकती हैं।

आवासीय सुविधाएं: गोपेश्वर और ऊखीमठ, दोनों जगह गढवाल मण्डल विकास निगम के विश्रामगृह हैं। इसके अलावा प्राइवेट होटल, लॉज, धर्मशालाएं भी हैं जो आसानी से मिल जाती हैं। चोपता में भी आवासीय सुविधा मिल जायेगी, यहां स्थानीय लोगों की दुकानें हैं।

समय और सीजन: मई से लेकर नवम्बर तक यहां की यात्रा थोडी आसान है। यात्रा के लिये सप्ताह भर का वक्त काफी है। यूं तो गर्म कपडे साथ हों चाहे महीने कोई भी हों, क्योंकि ऐसी जगह पर हर महीने का अपना रंग और अपना मजा है।

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मंगलवार, अप्रैल 26, 2011

शबरिमला- ब्रह्मचारी अय्यप्पन का वास

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 30 दिसम्बर 2007 को प्रकाशित हुआ था।
लेख: एम. एस. राधाकृष्ण पिल्लै

शबरिमला दक्षिण के सर्वप्रमुख मन्दिरों में से एक है। हर साल भगवान अय्यप्पन के दर्शन के लिये दिसम्बर-जनवरी में करोडों की संख्या में लोग यहां तीर्थयात्रा करते हैं। यह केरल से जुडे पर्यटन का एक अलग ही स्वरूप है। एक तरफ यह रजस्वला महिलाओं के प्रवेश पर रोक को लेकर चर्चित है तो दूसरी तरफ यह हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की शानदार मिसाल भी पेश करता है।

केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम से 175 किलोमीटर की दूरी पर पम्पा है और वहीं से चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम घाट से सह्यपर्वत शृंखलाओं के घने जंगलों के बीच, समुद्र की सतह से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर शबरिमला मन्दिर है। ‘मला’ मलयालम में पहाड को कहते हैं। उत्तर दिशा से आने वाले यात्री एर्णाकुलम से होकर कोट्टायम या चेंगन्नूर रेलवे स्टेशन से उतरकर वहां से क्रमशः 116 किलोमीटर और 93 किलोमीटर तक किसी न किसी जरिये से पम्पा पहुंच सकते हैं। पम्पा से पैदल चार-पांच किलोमीटर वन मार्ग से पहाडियां चढकर ही शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के दर्शन का लाभ उठाया जा सकता है।

दूसरे मन्दिरों की अपेक्षा शबरिमला मन्दिर के रस्म-रिवाज बिल्कुल ही अलग होते हैं। यहां जाति, धर्म, वर्ण या भाषा के आधार पर किसी भी भक्त पर कोई रोक नहीं है। यहां कोई भी भक्त अय्यप्पा मुद्रा में अर्थात तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर, सिर पर इरुमुटि अर्थात दो गठरियां धारण कर मन्दिर में प्रवेश कर सकता है। माला धारण करने पर भक्त ‘स्वामी’ कहा जाता है और यहां भक्त व भगवान का भेद मिट जाता है। भक्त भी आपस में ‘स्वामी’ कहकर ही सम्बोधित करते हैं। शबरिमला मन्दिर का संदेश ही ‘तत्वमसि’ है। ‘तत’ माने ‘वह’, जिसका मतलब ईश्वर है और ‘त्वं’ माने ‘तू’ जिसका मतलब जीव से है। ‘असि’ दोनों के मेल या दोनों के अभेद को व्यक्त करता है। ‘तत्वमसि’ से तात्पर्य है कि वह तू ही है। जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं, दोनों अभेद हैं। यही शबरिमला मन्दिर का सार-तत्व है, संदेश भी है।

पुराने समय में शबरिमला जाने वाले भक्त समूह में तीन-चार दिनों में पैदल यात्रा करके ही मन्दिर पहुंचते थे। रास्ते में भोजन वे खुद पकाते थे और इसके लिये जरूरी बर्तन, चावल वगैरह इरुमुटि में बांध लेते थे। दो गठरियों में, पहली गठरी में भगवान की पूजा की सामग्री, नैवेद्य चढाने का सामान और दूसरी गठरी में अपने पाथेय के लिये सामग्री रखी जाती थी। विशेष तैयारियों और रस्म-रिवाज के साथ, अपने ही घर पर या मन्दिर में, गुरुस्वामी के नेतृत्व में इरुमुटि बांधकर ‘स्वामिये अय्यपो’, ‘स्वामी शरणं’ के शरण मंत्रों का जोर-जोर से रट लगाकर भक्त शबरिमला तीर्थाटन के लिये रवाना होते हैं।

श्री धर्मशास्ता और श्री अय्यप्पन

क्षीर सागर मंथन के अवसर पर मोहिनी वेषधारी विष्णु पर मोहित शिव के दांपत्य से जन्मे शिशु ‘शास्ता’ का उल्लेख कंपरामायण के बालकांड, महाभागवत के अष्टम स्कंध और स्कंधपुराण के असुर कांड में मिलता है। श्री अय्यप्पन को धर्म की रक्षा करने वाले इसी धर्मशास्ता का अवतार माना जाता है। अय्यप्पन के संबंध में केरल में प्रचलित कथा यही है कि संतानहीन पंतलम राजा को शिकार के दौरान, पम्पा नदी के किनारे एक दिव्य, तेजस्वी, कंठ में मणिधारी शिशु मिला जिसे उन्होंने पाला-पोसा और बडा किया। मणिधारी वही शिशु मणिकंठन या अय्यप्पन कहलाये जो अपने जीवन का दौत्य पूरा करके पंतलम राजा द्वारा निर्मित शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के रूप में विराजते हैं।

जो भी हो धर्मशास्ता या अय्यप्पन की परिकल्पना को इसी पृष्ठभूमि में सार्थक माना जाता है कि सात-आठ सौ साल पहले दक्षिण में शिव और वैष्णवों के बीच घोर मतभेद थे, जिसमें हिंदू धर्म के उत्कर्ष में बाधा पडती थी। ऐसे हालात में दोनों में समन्वय जरूरी था। विष्णु और शिव के पुत्र, हरिहर-पुत्र धर्मशास्ता के द्वारा ही यह संभव हो सकता था।

शबरिमला में अय्यप्पन की मुख्य मूर्ति के अलावा, मालिकापुरत्त अम्मा, श्री गणेश, नागराजा जैसे उपदेवता भी प्रतिष्ठित हैं। मालिकापुरत्त अम्मा के बारे में कहा जाता है कि देवताओं और मनुष्यों को त्रस्त करने वाली महिषी का अय्यप्पन ने वध करके उसे मोक्ष प्रदान किया। मोक्ष प्राप्ति पर महिषी ने अपने पूर्व जन्म का रूप (पूर्व जन्म में वह लीला नामक युवती थी) धारण किया और मणिकंठन से विवाह का अनुरोध किया। नित्य ब्रह्मचारी मणिकंठन विवाह नहीं कर सकता था। लेकिन उन्होंने यह शर्त रखी कि जिस साल कोई कन्नि (कन्या) अय्यप्पन (पहली बार दर्शन के लिये आने वाला अय्यप्पन) नहीं आयेगा, उस समय वे उनसे शादी करेंगे। हर साल वह प्रतीक्षा करती रहती है, लेकिन प्रतिवर्ष हजारों की तादाद में नये भक्त आते ही रहते हैं और मालिकापुरत्त अम्मा की मनोकामना अधूरी ही रह जाती है। अय्यप्पन के मन्दिर के प्रांगण में ही अय्यप्पन के सहचर मुसलमान फकीर वावर के लिये भी जगह दी गई है।

एरुमेलि

भक्तों का पुराना पारम्परिक रास्ता है एरुमेलि होकर शबरिमला पहुंचना जो अधिक दुर्गम, चढाइयों और ढलानों वाला है। एरुमेलि में अय्यप्पन के घनिष्ठ मित्र वावर के नाम पर एक मस्जिद है। अय्यप्पा भक्त इस मस्जिद में प्रार्थना करके और दक्षिणा वगैरह अर्पित करके ही अय्यप्पा दर्शन के लिये आगे बढते हैं। यह मस्जिद हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक मानी जाती है। एरुमेलि की एक रस्म है ‘पेट्टा तुल्लल’। भक्त यहां कालिख, कुंकुम और कई तरह के रंग आदि पोतकर नाचते हैं। यह पेट्टा तुल्लल वावर की सहायता से अय्यप्पन द्वारा उदयनन नामक डाकू के मारे जाने पर उनके अनुचरों द्वारा नाचकूदकर विजय की खुशियां मनाने की याद में किया जाता है। एरुमेलि के परम्परागत मार्ग से जाने वाले भक्तों को 18 दुर्गम पहाडों को पैदल ही पार करना पडता है। यहां जंगली जानवरों के आतंक का खतरा भी है।

मन्दिर के परिसर में पहुंचने पर भक्त 18 सीढियां चढकर प्रांगण में प्रवेश करते हैं। ये अष्टदश सोपान प्रतीकात्मक माने जाते हैं। ये पावन अष्टदश सोपान पंचभूतों, अष्टरागों, त्रिगुणों और विद्या व अविद्या के प्रतीक माने जाते हैं।

शबरिमला मन्दिर में पूजा महोत्सव के लिये मण्डल 16 नवम्बर से 27 दिसम्बर तक द्वार खुला रहता है। मण्डल पूजा के लिये आने वाले लोगों को 41 दिन तक कडे नियमों में रहना होता है और मांसाहारी वस्तुओं के सेवन व भोग-विलास से दूर रहना होता है। मकरविलक्क (मकरज्योति) के लिये दिसम्बर 30 से जनवरी 20 तक खुला रहता है। (मकरज्योति दर्शन 14 जनवरी को पडता है) मार्च महीने की 12 तारीख को ध्वजारोहण के साथ 10 दिनों का उत्सव शुरू होता है जो अवभृथ स्नान (मूर्ति को नदी या सागर में स्नान कराना) के साथ 21 को समाप्त होता है। विषु पूजा के लिये अप्रैल महीने में 10 से 18 तक मन्दिर खुला रहता है। इन अवसरों को छोडकर मलयाल के शुरू में 6 दिन ही मासिक पूजा के लिये मन्दिर खुला रहता है, अन्य अवसरों पर नहीं।

मकर संक्रांति व उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र के संयोग के दिन, पंचमी तिथि और वृश्चिक लग्न के संयोग के समय ही श्री अय्यप्पन का जन्म हुआ और यही कारण है कि मकर संक्रांति के दिन शबरिगिरीशन के दर्शनार्थ हजारों-लाखों की तादाद में भक्त शबरिमला आते हैं और आरती के समय श्री अय्यप्पन के दर्शन लाभ के साथ ही पूर्व दिशा में कांतिमला की चोटी पर मकर ज्योति का भी दर्शन कर सायूज्य लाभ करते हैं।

खास बातें

श्री अय्यप्पन को घी का अभिषेक सबसे प्रिय है और ‘अरावणा’ (चावल, गुड और घी से तैयार खीर) ही मुख्य प्रसाद माना है।

चूंकि अय्यप्पन नित्य ब्रह्मचारी हैं, इसलिये 10 और 60 वर्ष के बीच की आयु की औरतों के लिये मन्दिर में प्रवेश मना है।

यह अंदाज लगाया जाता है कि गत वर्ष (2007) शबरिमला में पांच करोड से अधिक भक्त दर्शनार्थ आये और सरकारी आंकडों के मुताबिक मन्दिर की गतवर्ष (2007) की आय 100 करोड रुपये के करीब है।

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सोमवार, अप्रैल 25, 2011

मालदीव- खूबसूरती का समंदर

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 25 नवम्बर 2007 को प्रकाशित हुआ था।
लेख: उपेन्द्र स्वामी

ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को लेकर जो बात वेनिस के संदर्भ में कही जा रही है, वही मालदीव पर भी लागू होती है। समुद्र का बढता जलस्तर इस खूबसूरत जगह के अस्तित्व के लिये लगातार खतरा बन रहा है। अफसोस इस बात का है कि इसके लिये बहुत कुछ किया नहीं जा रहा। खतरा तात्कालिक तो नहीं लेकिन बहुत दूर भी नहीं। लेकिन इस खतरे से परे मालदीव एक ऐसी जगह है जहां जाना और सुकून के कुछ पल व्यतीत करना एक सपने के सच होने के समान है।

चारों तरफ नीला समुद्र और बीच में रैन बसेरा हो… यह जुमला केवल लग्जरी क्रूज लाइनर पर ही लागू नहीं होता। यहां हम बात कर रहे हैं एक ठहरे हुए कमरे, एक घर की। यह कल्पना जिस खूबसूरती के साथ मालदीव में साकार होती है, उतनी दुनिया में शायद और कहीं नहीं। बीच रिसॉर्ट में जो मादकता यहां मिलती है, वो भी कहीं और देखने को नहीं मिलेगी। मालदीव की अर्थव्यवस्था का सबसे बडा आधार पर्यटन है और यहां के रिसॉर्ट इस पर्यटन उद्योग की जीवनरेखा हैं। मालदीव को महसूस करना हो तो इन रिसॉर्ट में ठहरे बगैर उसका असली मजा नहीं लिया जा सकता।

मालदीव में 1192 छोटे-छोटे कोरल द्वीप हैं। इन द्वीपों के 26 द्वीप समूह हैं। कुल दो सौ ही द्वीपों पर स्थानीय आबादी रहती है। लेकिन सैलानियों के लिये उपलब्ध द्वीपों की संख्या भी खासी है। कुल 12 द्वीप समूहों पर 89 रिसॉर्ट सैलानियों के लिये हैं। कई द्वीप ऐसे हैं जो केवल सैलानियों के लिये बने रिसॉर्ट से ही आबाद हैं। कई रिसॉर्ट समूह ऐसे भी हैं जिन्होंने अगल-बगल के कई द्वीपों पर अपने रिसॉर्ट खोले हुए हैं।

मालदीव इस खूबसूरती के साथ समुद्र पर बसा हुआ है कि अगर आप राजधानी माले में न हों तो वहां आपको हर पल समुद्र पर ही होने का एहसास मिलेगा। हवाईजहाज से उतरें तो द्वीप पर। एयरपोर्ट से कहीं जायें तो समुद्र पर, रहें तो समुद्र पर, कमरे में बैठे-बैठे समुद्र की लहरों से उगते सूरज को देखें और फिर शाम ढले उसे समंदर की अनंत गहराई में उतरते देखें। इतना ही नहीं, सैर करें तो भी समुद्र पर। यह सैर समुद्र की सतह पर हो सकती है, कोरल रीफ के साथ-साथ प्रकृति की अदभुत कलाकारी को देखते-देखते भी हो सकती है या गोता लगाकर समुद्री जीवन की रंगीनियों का मजा लेते-लेते भी।

मालदीव के रिसॉर्ट आपको समुद्र का यही अनुभव दिलाने की होड करते हैं। अगर समुद्र आपको रोमांचित नहीं करता तो शायद मालदीव आपके लिये नहीं। लेकिन अगर ऐसा है तो आप वाकई एक नायाब जगह को देखने से वंचित रह जायेंगे। यहां हर रिसॉर्ट इस बात की कोशिश करता है कि सैलानियों का ज्यादा से ज्यादा तादात्म्य नीले समंदर के साथ स्थापित किया जा सके। इसीलिये यहां वे लोग नहीं आते जिन्हें धूम-धडाका पसन्द है। यहां वे लोग आते हैं जिन्हें सुकून की तलाश है। वे लोग जो कुछ समय के लिये बाहरी दुनिया से अपना नाता कम कर लेना चाहते हैं। वे लोग जो रोजमर्रा की भागदौड से थके अपने दिल-दिमाग को कुछ आराम देना चाहते हैं। वे लोग जो इस असीम शान्ति में खोकर और तरोताजा होकर नये जोशो-खरोश के साथ अपने काम में जुट जाना चाहते हैं। इसीलिये अब ज्यादातर रिसॉर्ट केवल रिसॉर्ट न होकर स्पा भी हो गये हैं।

जैसा कि हमने बताया कि कई रिसॉर्ट समूहों के पास एक से ज्यादा रिसॉर्ट अलग-अलग द्वीपों पर हैं। उदाहरण के तौर पर विला होटल समूह के पास पांच द्वीपों पर अलग-अलग रिसॉर्ट हैं। इनमें से दो तो अपने नाम से लुभाते हैं- फन आइलैण्ड व हॉलीडे आइलैण्ड। बाकी तीन रिसॉर्ट के साथ-साथ स्पा भी हैं- सन आइलैंड रिसॉर्ट एंड स्पा, रॉयल आइलैंड रिसॉर्ट एंड स्पा और पैरेडाइज आइलैंड रिसॉर्ट एंड स्पा। इसी तरह यूनीवर्सल रिसॉर्ट्स के पास मालदीव व सेशल्स में आठ द्वीपीय रिसॉर्ट्स तो हैं ही, एटोल (द्वीपसमूह) एक्सप्लोरर नाम का एक लग्जरी क्रूज जहाज भी है। मालदीव में उसके रिसॉर्ट कुरुंबा, बारोस, लैगूना, फुल मून व कुरामथी (ब्लू लैगून, कॉटेज एंड स्पा व विलेज अलग-अलग) द्वीपों पर हैं तो सेशल्स में लैब्रीज पर।

यदि रिसॉर्ट आपके मन को तृप्त नहीं कर पाते हों तो फिर आपके पास क्रूज बोट का विकल्प भी है। मालदीव टूरिस्ट बोर्ड के पास एक-दो नहीं बल्कि पूरी 71 क्रूज बोट का विवरण दर्ज है। पूरी छानबीन कीजिये और अपनी पसंद की बोट चुनिये। यह बेशक है कि क्रूज बोट आपको मालदीव के सभी लगभग 1200 कोरल द्वीपों की अदभुत सैर का मौका उपलब्ध कराती है। इनमें से कितनों की सैर आप वाकई कर पाते हैं, यह आपके ऊपर निर्भर करता है। गेम रिजर्व में सफारी के बारे में तो आपने जरूर सुना होगा लेकिन मालदीव की क्रूज बोट आपको डाइविंग सफारी पर ले जाती है। हैरतअंगेज, रंग बिरंगे समुद्री जीवन को महसूस करने का यह सबसे बेहतरीन तरीका है। इन सबके अलावा जो लोग समुद्र से थोडा बच बचकर मालदीव का नजारा लेना चाहते हैं तो उनके लिये राजधानी माले में कई होटल हैं। माले ही मालदीव में एकमात्र ऐसी जगह है जो आपको शहरी आबादी के बीच होने का एहसास कराती है।

इस खूबसूरती को बनाये रखने के लिये कवायद कम नहीं

पर्यटकों के लिये मालदीव जितना खूबसूरत है, उतना ही यह शांत व सुरक्षित भी है। लेकिन ये खूबसूरती कायम रखने के लिये काफी जद्दोजहद भी है। वरना जिस संख्या में यहां दुनियाभर से सैलानी आते हैं, वह यहां के तटों को बदरूप करने के लिये बहुत है। मालदीव ने प्रकृति की इस अनमोल भेंट को अक्षुण्ण रखने के लिये जो उपाय किये हैं, वे भारत समेत बाकी देशों के लिये भी सबक हो सकते हैं। एक नजर उन कदमों पर जो मालदीव की खूबसूरती बनाये रखने के लिये उठाये जा रहे हैं-

  • ध्यान रखें कि मालदीव को 2006 में वर्ल्ड ट्रैवल अवार्ड्स में दुनिया की बेस्ट डाइव डेस्टिनेशन के खिताब से नवाजा गया था।
  • किसी तट के केवल 68 फीसदी हिस्से को ही कमरों के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है। बीस फीसदी को सार्वजनिक इस्तेमाल के लिये और 12 फीसदी को खुले स्थान के रूप में रखने की अनिवार्यता है। रिसॉर्ट में रहने वाले सैलानियों की संख्या के बारे में एक तय मानक है।
  • मालदीव सरकार ने रिसॉर्टों और बसावट वाले द्वीपों पर कोरल व रेत के खनन पर रोक लगा रखी है। मालदीव में कुल 25 अलग-अलग संरक्षित कोरल रीफ हैं। इतना ही नहीं, वहां कुल 1192 कोरल द्वीप हैं। रोचक बात है कि माले अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी राजधानी माले से परे एक अलग द्वीप पर है।
  • मालदीव में एक द्वीप पर एक रिसॉर्ट की नीति लागू है। उसमें यह नियम भी लागू है कि किसी भी रिसॉर्ट की इमारत की ऊंचाई वहां ताड के सबसे ऊंचे पेड से ज्यादा ऊंची नहीं होनी चाहिये। किसी भी रिसॉर्ट पर कुल जमीन के केवल 20 फीसदी हिस्से पर ही निर्माण किया जा सकता है। जेटी वगैरा के निर्माण पर भी पर्यटन मंत्रालय का नियंत्रण है। वह हर तरह के निर्माण पर भी कडी निगरानी रखता है।
  • पेडों को काटने या प्राकृतिक वनस्पति को संरक्षित करने संबंधी किसी भी बडे काम को शुरू करने से पहले पर्यावरण प्रभाव आकलन नितांत जरूरी है।
  • जहां कुछ द्वीप समूहों में शार्क को पकडने पर रोक है तो कछुए को संरक्षित प्राणी का ही दर्जा दे दिया गया है और उनके किसी भी उत्पाद पर रोक लगी हुई है।
  • कूडे की समस्या न खडी हो, इसलिये सभी रिसॉर्टों पर इंसिनरेटर, बोटल क्रशर व कंपेक्टर लगाना अनिवार्य है। सभी नये रिसॉर्ट पर जलशोधन संयंत्र लगाने भी अनिवार्य हैं।
  • इसी तरह सभी रिसॉर्टों पर खारे पानी को पीने योग्य बनाने के संयंत्रों ने भी प्राकृतिक पेयजल पर दबाव काफी कम किया है।
  • एक और नियम यहां है कि रिसॉर्ट के सभी कमरों का मुंह तट की तरफ होना चाहिये और हर बंगले के आगे पांच मीटर का तटक्षेत्र छोडा जाना चाहिये।
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रविवार, अप्रैल 24, 2011

गंगा की मौज पर क्रूज का मजा

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 28 अक्टूबर 2007 को प्रकाशित हुआ था।

क्रूज के नाम से अगर आपके जेहन में सिर्फ समुद्र में तैरते बडे जहाजों की तस्वीर उभरती हो तो आप गलत हैं। भारत में गंगा व ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां हैं जिनके पाट इतने चौडे व गहरे हैं कि छोटे जहाज उनमें आसानी से चल सकते हैं। नदियों की धार के साथ-साथ चलते चलते देश को देखने का मजा ही कुछ और है।

भारत जैसे समृद्ध इतिहास व संस्कृति वाले देश को देखने व समझने के कई तरीके घुमक्कडों के पास हो सकते हैं। लेकिन कई बार ये तरीके ही इतने मजेदार हो जाते हैं कि लोग जगह के साथ-साथ इनका भी मजा लूटने आते हैं। भारत में सैलानियों के लिये हाउसबोट तो श्रीनगर से लेकर केरल तक कई जगहों पर हैं लेकिन नदियों में क्रूज का चलन अभी तक बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाया है। अब जबकि क्रूजलाइनर भी भारतीय बाजार में जगह बनाने में लगे हुए हैं, मुमकिन है कि नदियों में क्रूज का प्रचलन भी जोर पकडने लगे।

इस बार हम बात कर रहे हैं एक ऐसे ही क्रूज की जो शायद फिलहाल भारत में अपनी तरह का अकेला क्रूज है। कोलकाता से दो क्रूज हैं- एक मुर्शिदाबाद के लिये और दूसरा सुन्दरबन के लिये। दोनों ही क्रूज तीन रात व चार दिन के हैं। कोलकाता से मुर्शिदाबाद तक 260 किलोमीटर का सफर गंगा की धारा में तय करना इतिहास, अध्यात्म व प्रकृति का एक सफर है। वहीं विश्वप्रसिद्ध सुन्दरबन का क्रूज इको टूरिज्म, एडवेंचर स्पोर्ट्स, आराम व नेचर ट्रेक का एक यादगार अनुभव है। आखिरकार रॉयल बंगाल टाइगर के इस इलाके में ही दुनिया के सबसे अनूठे इको-सिस्टम में से एक आपको देखने को मिलेगा। मजेदार बात यही है कि यह क्रूज तमाम बाकी गतिविधियों का मिला-जुला स्वरूप है। जैसे कि आप सुन्दरबन जायें तो वहां जंगल में पैदल घूमने, एक द्वीप को बनते देखने, मछुआरों की बस्तियों को देखने, वगैरह का मौका भी आपको मिलेगा।

इस बार हम बात कर रहे हैं एक ऐसे ही क्रूज की जो शायद फिलहाल भारत में अपनी तरह का अकेला क्रूज है। कोलकाता से दो क्रूज हैं- एक मुर्शिदाबाद के लिये और दूसरा सुन्दरबन के लिये। दोनों ही क्रूज तीन रात व चार दिन के हैं। कोलकाता से मुर्शिदाबाद तक 260 किलोमीटर का सफर गंगा की धारा में तय करना इतिहास, अध्यात्म व प्रकृति का एक सफर है। वहीं विश्वप्रसिद्ध सुन्दरबन का क्रूज इको टूरिज्म, एडवेंचर स्पोर्ट्स, आराम व नेचर ट्रेक का एक यादगार अनुभव है। आखिरकार रॉयल बंगाल टाइगर के इस इलाके में ही दुनिया के सबसे अनूठे इको-सिस्टम में से एक आपको देखने को मिलेगा। मजेदार बात यही है कि यह क्रूज तमाम बाकी गतिविधियों का मिला-जुला स्वरूप है। जैसे कि आप सुन्दरबन जायें तो वहां जंगल में पैदल घूमने, एक द्वीप को बनते देखने, मछुआरों की बस्तियों को देखने, वगैरह का मौका भी आपको मिलेगा।

संस्कृति की धरोहर दिखाने वाले दूसरे क्रूज का आनन्द बिल्कुल अलग है। इसमें पहले दिन कोलकाता से रवाना होने के बाद हावडा पुल के नीचे से गुजरते हुए नदी के किनारे बने मन्दिरों व घाटों, हाउस ऑफ डॉल्स, नीमतोला घाट, काशीपुर में भारत की सबसे पुरानी बंदूक व गोला फैक्टरी को निहारते हुए बेलूर पहुंचते हैं। यहां उतरकर स्वामी विवेकानन्द द्वारा स्थापित किये गये बेलूर मठ को देखने का मौका मिलता है। शाम ढलते-ढलते सैलानी फिर जहाज पर पहुंच जाते हैं और चंदननगर निकल पडते हैं। यह 1950 तक फ्रांस की एक कॉलोनी थी। जाहिर है, यहां का हर माहौल फ्रांसीसी होगा। आसपास के इलाके का मजा लेकर जब सैलानी वापस जहाज में पहुंचेंगे तो रात में खाना भी फ्रांसीसी स्वाद का ही मिलेगा। वहां से चलकर जहाज रात बिताने के लिये त्रिवेणी में लंगर डाल देता है।

दूसरे दिन का सफर ग्रामीण बंगाल की खूबसूरती को निहारने का होता है। सवेरे के समय एक इतिहासकार जहाज पर आकर गंगा की अनमोल विरासत के बारे में जानकारी देता है। दोपहर में जहाज मायापुर पहुंचता है जो इस्कॉन का मुख्यालय है। यहां शानदार शाकाहारी भोजन आपका इंतजार कर रहा होता है। हरे कृष्ण सम्प्रदाय का मानना है कि मायापुर में ही चैतन्य महाप्रभु का जन्म हुआ था इसलिये यह दुनिया की आध्यात्मिक राजधानी है। साथ ही में नबद्वीप है जो अब नदी के रास्ता बदल लेने से गंगा के पश्चिमी तट पर आ गया है। नबद्वीप को अपनी बौद्धिक परम्परा के लिये बंगाल का ऑक्सफोर्ड भी कहा जाता है। चैतन्य महाप्रभु से जुडे इन दो शहरों की सैर के बाद शाम फिर से जहाज पर बीतती है। रात में जहाज हजारद्वारी में लंगर डाल देता है।

मुर्शिदाबाद पश्चिमी बंगाल के सबसे पुराने और सम्पन्न विरासत वाले शहरों में से है। नवाब मुर्शीद अली खान ने बंगाल, बिहार और उडीसा को मिलाकर जो सूबे बांग्ला बनाया था, मुर्शिदाबाद उसकी राजधानी थी। यह बंगाल के आजाद नवाबों की आखिरी और अंग्रेजों के शासन में बंगाल की पहली राजधानी भी रही। तीसरे दिन यात्री हजारद्वारी में उतरकर खुशबाग में सैर करते हैं। इसी में बंगाल के आखिरी आजाद नवाब सिराज-उद-दौला का मकबरा है। नाश्ते के लिये लोग जहाज पर लौटते हैं और उसके बाद फिर तरोताजा होकर शहर में निकल पडते हैं। निजामत किला, हजारद्वारी पैलेस, म्यूजियम, कटारा मस्जिद, नाशीपुरा पैलेस, वगैरा घूमकर सैलानी भोजन के लिये जहाज पर लौटते हैं। मुर्शिदाबाद का सिल्क बहुत लोकप्रिय है। दोपहर बाद का समय उसकी खरीदारी में लगाया जा सकता है। शाम को इस शहर से विदा लेकर प्लासी की लडाई के ऐतिहासिक मैदान की झलक देखने के लिये वापसी का सफर शुरू हो जाता है। चौथे दिन सवेरे कालना के प्राचीन टेराकोटा मन्दिर देखे जा सकते हैं। चिनसुरा व बंदेल होते हुए कोलकाता में सफर खत्म हो जाता है। थोडा महंगा सही लेकिन यह अनुभव शानदार होगा।

एक झलक तीन डेक वाला क्रूज जहाज ऐशो-आराम की सारी सुविधाएं उपलब्ध कराता है। जहाज में 32 एसी कमरे हैं। सैलानियों की देखरेख के लिये 40 लोगों का स्टाफ जहाज पर मौजूद रहता है।

किराया (अक्टूबर 2007 से मार्च 2008 तक): व्यक्तिगत दरें मुख्य डेक (डीलक्स केबिन)- 24000 रुपये फर्स्ट डेक (लग्जरी केबिन)- 28500 रुपये

ग्रुप रेट (न्यूनतम दस यात्री) मुख्य डेक (डीलक्स केबिन)- 21400 रुपये फर्स्ट डेक (लग्जरी केबिन)- 25500 रुपये

ये प्रति व्यक्ति दरें तीन रात, चार दिन के पूरे पैकेज के लिये हैं। इसमें सभी भोजन, गाइडेड टूर, एंट्री फीस, मनोरंजन आदि शामिल हैं। पांच साल से छोटे बच्चे के लिये 20 फीसदी अतिरिक्त किराया, दो के कमरे में तीसरे व्यक्ति के लिये 50 फीसदी ज्यादा किराया। किराये में 4.94 फीसदी सर्विस टैक्स शामिल नहीं है।

रवानगी: (मिलेनियम पार्क जेट्टी से): हर सोमवार दोपहर तीन बजे वापसी: हर बृहस्पतिवार सवेरे ग्यारह बजे उसी स्थान पर सम्पर्क: विविडा क्रूज, कोलकाता।

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शनिवार, अप्रैल 23, 2011

बाइक से सातवें आसमान पर

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 28 अक्टूबर 2007 को प्रकाशित हुआ था।

लेख: प्रेम नाथ नाग

ऊंची चोटियों को अब तक कदमों से नापा जाता था लेकिन अब इंसान ने रास्ते बना लिये हैं और वाहनों से ऊंचाई छूने लगा है। लेकिन रास्ते बन जाने के बाद भी सफर आसान नहीं हो जाता। खासकर यदि आप लद्दाख के रास्ते पर बाइक से जा रहे हों। लम्बा सफर, प्रतिकूल मौसम, ऊंचाई वाला इलाका, मशीन से तालमेल, ये सब बेहद चुनौतीपूर्ण हैं। लद्दाख का इलाका रोमांचप्रेमी बाइक चालकों के लिये एक ऐसा मील का पत्थर है जिसे छूने की तमन्ना सभी रखते हैं। हर साल अप्रैल से सितम्बर तक दुनियाभर से लोग यहां अपने रोमांच को उडान देने आते हैं। आखिर यही पर दुनिया की सबसे ऊंची सडक खारदूंगला में है। तमाम मुश्किलों को पार करने वाले इन सवारों को प्रकृति के जो रूप यहां देखने को मिलते हैं और जिन अनुभवों से वे रूबरू होते हैं, वे ही उनकी पूंजी बन जाते हैं। आम लोग इन अनुभवों से वंचित ही रहते हैं। एक झलक ऐसे ही एक अनुभव की जो दिल्ली के नौजवान राहुल चौधरी ने लिया।


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शुक्रवार, अप्रैल 22, 2011

पुष्कर- स्नान का लाभ और मेले का आनंद

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 28 अक्टूबर 2007 को छपा था।

लेख: उपेन्द्र स्वामी

भारत में किसी पौराणिक स्थल पर आमतौर पर जिस संख्या में पर्यटक आते हैं, पुष्कर में आने वाले पर्यटकों की संख्या उससे कहीं ज्यादा है। इनमें बडी संख्या विदेशी सैलानियों की है, जिन्हें पुष्कर खासतौर पर पसन्द है। हर साल कार्तिक महीने में लगने वाले पुष्कर ऊंट मेले ने तो इस जगह को दुनिया भर में अलग ही पहचान दे दी है।

देशभर के हिंदू तीर्थस्थानों में पुष्कर का अलग ही महत्व है। यह महत्व इसलिये बढ जाता है कि यह अपने आप में दुनिया में अकेली जगह है जहां ब्रह्मा की पूजा की जाती है। लेकिन इस धार्मिक महत्व के अलावा भी इस जगह में लोगों को आकर्षित करने वाली खूबसूरती है। अजमेर से नाग पर्वत पार करके पुष्कर पहुंचना होता है। इस पर्वत पर एक पंचकुण्ड है और अगस्त्य मुनि की गुफा भी बताई जाती है। यह भी माना जाता है कि महाकवि कालिदास ने इसी स्थान को अपने महाकाव्य अभिज्ञान शाकुंतलम के रचनास्थल के रूप में चुना था। पुष्कर में एक तरफ तो विशाल सरोवर से सटी पुष्कर नगरी है तो दूसरी तरफ रेगिस्तान का मुहाना। सैलानियों की इतनी बडी संख्या के बावजूद यहां के स्वरूप में खास तब्दीली नहीं आई है।

कार्तिक के महीने में यहां लगने वाला ऊंट मेला दुनिया में अपनी तरह का अनूठा तो है ही, साथ ही यह भारत के सबसे बडे पशु मेलों में से भी एक है। मेले के समय पुष्कर में कई संस्कृतियों का मिलन सा देखने को मिलता है। एक तरफ तो मेला देखने के लिये विदेशी सैलानी बडी संख्या में पहुंचते हैं तो दूसरी तरफ राजस्थान व आसपास के तमाम इलाकों से आदिवासी और ग्रामीण लोग अपने-अपने पशुओं के साथ मेले में शरीक होने आते हैं। मेला रेत के विशाल मैदान में लगाया जाता है। आम मेलों की ही तरह ढेर सारी कतार की कतार दुकानें, खाने पीने के स्टाल, सर्कस, झूले और न जाने क्या-क्या। ऊंट मेला और रेगिस्तान की नजदीकी है इसलिये ऊंट तो हर तरफ देखने को मिलते ही हैं। लेकिन कालांतर में इसका स्वरूप एक विशाल पशु मेले का हो गया है, इसलिये लोग ऊंट के अलावा घोडे, हाथी और बाकी मवेशी भी बेचने के लिये आते हैं। सैलानियों को इन पर सवारी का लुत्फ मिलता है सो अलग। लोक संस्कृति व लोग संगीत का शानदार नजारा देखने को मिलता है।

मेला स्थल से परे पुष्कर नगरी का माहौल एक तीर्थनगरी सरीखा होता है। कार्तिक में स्नान का महत्व हिंदू मान्यताओं में वैसे भी काफी ज्यादा है। इसलिये यहां साधु भी बडी संख्या में नजर आते हैं। पुष्कर मेला कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से शुरू होता है और पूर्णिमा तक चलता है। मेले के शुरूआती दिन जहां पशुओं की खरीद-फरोख्त का जोर रहता है, वही बाद के दिनों में पूर्णिमा पास आते-आते धार्मिक गतिविधियों का जोर हो जाता है। श्रद्धालुओं के सरोवर में स्नान करने का सिलसिला भी पूर्णिमा को अपने चरम पर होता है।

मेले के दिनों में ऊंटों व घोडों की दौड खूब पसन्द की जाती है। सबसे खूबसूरत ऊंट व ऊंटनियों को इनाम भी मिलते हैं। दिन में लोग जहां जानवरों के कारनामे देखते रहते हैं, तो वही शाम का समय राजस्थान के लोक नर्तकों व लोक संगीत का होता है। ऐसा समां बनता है कि लोग झूमने लगते हैं।

मन्दिरों की नगरी

पुष्कर को तीर्थनगरी का दर्जा हासिल है तो उसकी एक वजह यह भी है कि यहां कई मन्दिर हैं। इसीलिये इसे मन्दिरों की नगरी भी कहा जाता है। पुष्कर में छोटे बडे चार सौ से ज्यादा मन्दिर हैं।

ब्रह्मा मन्दिर: ब्रह्मा के नाम मौजूद यह एकमात्र मन्दिर है। इस समय जो मन्दिर है, वह 14वीं सदी में बनाया गया था। मन्दिर के लिये कई सीढियां चढनी होती हैं जो संगमरमर की बनी हैं। मन्दिर के गर्भगृह के ठीक सामने चांदी का कछुआ बना हुआ है। कछुए के चारों तरफ मार्बल के फर्श पर सैकडों सिक्के गढे हुए हैं जिनपर दानदाताओं के नाम खुदे हुए हैं।

रंगजी मन्दिर: रंगजी को विष्णु का ही रूप माना जाता है। इनके दो मन्दिर हैं- एक नया और दूसरा पुराना। नया मन्दिर हैदराबाद के सेठ पूरणमल गनेरीवाल ने 1823 में बनवाया था। इस मन्दिर की खूबसूरती द्रविड, राजपूत व मुगल शैली के अदभुत समागम की वजह से है।

सावित्री मन्दिर: ब्रह्मा की पहली पत्नी का यह मन्दिर ब्रह्मा मन्दिर के पीछे एक पहाडी पर स्थित है। मन्दिर पर पहुंचने के लिये कई सीढियां चढनी होती हैं। मन्दिर से नीचे पुष्कर सरोवर और आसपास के गांवों का मनमोहक नजारा देखने को मिलता है।

सरस्वती मन्दिर: विद्या की देवी सरस्वती भी ब्रह्मा की पत्नी हैं। वह नदी भी हैं और उन्हें उर्वरता और शुद्धता का प्रतीक माना जाता है। यह जोरदार बात है कि पुष्कर को ज्ञान अर्जना का भी केन्द्र माना जाता है। सदियों से लेखक, कलाकार अपनी-अपनी कलाओं को निखारने के लिये पुष्कर आते हैं।

इनके अलावा पुष्कर में बालाजी मन्दिर, मन मन्दिर, वराह मन्दिर, आत्मेश्वर महादेव मन्दिर आदि भी श्रद्धा के प्रमुख केन्द्रों में से हैं। सरोवर के ही किनारे आमेर के राजा मानसिंह का पूर्व निवास मन महल भी है। हालांकि अब इसे राजस्थान पर्यटक विकास निगम के होटल के रूप में तब्दील किया जा चुका है।

यहां आने वाले लोग कहते हैं कि पुष्कर का अपने में अलग जादू है जो लोगों को खींचता है। खासतौर पर मेले के समय यहां आना एक यादगार अनुभव है। एक ऐसा अनुभव जो अगर मौका मिले तो किसी हाल में चूकना नहीं चाहिये।

पौराणिक महत्व

त्रिदेवों में विष्णु व शिव के साथ ब्रह्मा को गिना जाता है। ब्रह्मा जहां सृष्टि के रचयिया माने जाते हैं, वहीं विष्णु उसके पालक और शिव संहारक। पुष्कर का अर्थ एक ऐसे सरोवर से होता है जिसकी रचना एक पुष्प से हुई हो। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने अपने यज्ञ के लिये एक उचित स्थान चुनने के इरादे से एक कमल गिराया था। पुष्कर उसी से बना। ब्रह्मा एक खास मुहूर्त में यज्ञ करना चाहते थे। यज्ञ पूर्ण करने के लिये उनके साथ उनकी अर्धांगिनी सावित्री का होना जरूरी था। लेकिन सावित्री उन्हें इंतजार कराती रही। चिढकर ब्रह्मा ने एक ग्वालिन गायत्री से विवाह कर लिया और यज्ञ में उसे सावित्री के स्थान पर बैठा दिया। सावित्री ने वहां आकर अपनी जगह किसी और को बैठा देखा तो वह कुपित हो गई और उन्होनें ब्रह्मा को श्राप दे दिया कि जिस सृष्टि की रचना उन्होंने की है, उसी सृष्टि के लोग उन्हें भुला देंगे और उनकी कहीं पूजा नहीं होगी। लेकिन बाद में देवों की विनती पर सावित्री पिघली और उन्होंने कहा कि पुष्कर में उनकी पूजा होगी। इसीलिये कहा यही जाता है कि दुनिया में ब्रह्मा का सिर्फ एक ही मन्दिर है और वह पुष्कर में है।

क्या खरीदें: यहां खरीदने के लिये हस्तशिल्प की कई सारी वस्तुएं मिल जायेंगी। स्थानीय लोग महिलाओं, मवेशियों व ऊंटों की सजावट का सामान काफी खरीदते हैं। यादगार के तौर पर कई पारम्परिक चीजें यहां से खरीदी जा सकती हैं। राजस्थान पर्यटन इस मौके पर एक शिल्पग्राम भी स्थापित करता है जहां राज्य के विभिन्न हिस्सों से शिल्पकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। आप इस मौके पर न केवल उन्हें अपनी कला में रत देख सकते हैं बल्कि अपने संग्रह के लिये उनके शिल्प को खरीद भी सकते हैं। स्थानीय शिल्प को प्रोत्साहन देने का भी यह काफी कारगर तरीका है।

कहां ठहरें पुष्कर में ठहरने के लिये हर तरह के बजट लायक कई होटल व गेस्ट हाउस हैं। मेले के दौरान बडी संख्या में टेंट भी लगाये जाते हैं। इनमें लक्जरी टेंट भी होते हैं और कई सैलानी माहौल का पूरा आनन्द उठाने के लिये टेंट में ठहरना ज्यादा पसन्द करते हैं। लक्जरी टेंट आमतौर पर पर्यटन विभाग और निजी टूर ऑपरेटरों द्वारा लगाये जाते हैं। पुष्कर में न ठहरना चाहें तो अजमेर भी एक विकल्प है।

कब जायें: पुष्कर के पवित्र सरोवर में स्नान के लिये साल में कभी भी जाया जा सकता है। लेकिन स्नान के साथ-साथ पुष्कर के जगतप्रसिद्ध ऊंट मेले का भी मजा लेना हो तो कार्तिक माह में जायें। मेला कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से शुरू होकर पूर्णिमा तक चलता है। लेकिन ध्यान रखें कि वह समय सर्दियों की शुरूआत का है। पुष्कर के खुले रेतीले इलाके में उन दिनों रातें खासी ठण्डी हो सकती हैं। इसलिये जायें तो साथ में गरम कपडों का इंतजाम जरूर रखें।

और कैसे: सडक मार्ग से: पुष्कर अजमेर से केवल 12 किलोमीटर दूर है। वहीं अजमेर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 (दिल्ली-मुम्बई) पर स्थित है। अजमेर से जयपुर 138 किलोमीटर व दिल्ली 392 किलोमीटर है। जबकि दूसरी दिशा में उदयपुर 274 व मुम्बई 1071 किलोमीटर दूर है। अजमेर के लिये सभी बडे शहरों से सीधी सामान्य व डीलक्स बसें हैं। अजमेर से पुष्कर जाने के लिये भी कई साधन उपलब्ध हैं।

रेल मार्ग- पुष्कर जाने के लिये आपको ट्रेन से अजमेर ही आना होगा। अजमेर दिल्ली-अहमदाबाद मुख्य रेल लाइन पर है। अहमदाबाद जाने वाली ट्रेनों के अलावा दिल्ली से शताब्दी भी अजमेर तक है।

हवाई रास्ता- अजमेर में हवाई अड्डा नहीं है। इस लिहाज से जयपुर सबसे निकट का हवाई अड्डा है। हालांकि अजमेर के पास किशनगढ में एक हवाई पट्टी है जहां छोटे चार्टर विमान उतर सकते हैं। इसके अलावा अजमेर के निकट घूघरा में और पुष्कर के निकट देवनगर में हैलीपैड हैं जो हेलीकॉप्टर से आने वालों के लिये हैं।

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गुरुवार, अप्रैल 21, 2011

देलवाडा मन्दिर- शिल्प-सौन्दर्य का बेजोड खजाना

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 30 सितम्बर 2007 को प्रकाशित हुआ था।

लेख: गोपेन्द्र नाथ भट्ट

समुद्र तल से लगभग साढे पांच हजार फुट ऊंचाई पर स्थित राजस्थान की मरुधरा के एकमात्र हिल स्टेशन माउण्ट आबू पर जाने वाले पर्यटकों, विशेषकर स्थापत्य शिल्पकला में रुचि रखने वाले सैलानियों के लिये इस पर्वतीय पर्यटन स्थल पर सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र वहां मौजूद देलवाडा के प्राचीन जैन मन्दिर हैं। 11वीं से 13वीं सदी के बीच बने संगमरमर के ये नक्काशीदार जैन मन्दिर स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। पांच मन्दिरों के इस समूह में विमल वासाही टेम्पल सबसे पुराना है। इन मन्दिरों की अदभुत कारीगरी देखने योग्य है। अपने ऐतिहासिक महत्व और संगमरमर पत्थर पर बारीक नक्काशी की जादूगरी के लिये पहचाने जाने वाले राज्य के सिरोही जिले के इन विश्वविख्यात मन्दिरों में शिल्प सौन्दर्य का ऐसा बेजोड खजाना है, जिसे दुनिया में अन्यत्र और कहीं नहीं देखा जा सकता।

दिल्ली-अहमदाबाद बडी लाइन पर आबू रेलवे स्टेशन से लगभग 20 मील दूर स्थित देलवाडा के इन मन्दिरों की भव्यता और उनके वास्तुकारों के भवन निर्माण में निपुणता, उनकी सूक्ष्म पैठ और छेनी पर उनके असाधारण अधिकार का परिचय देती है। देलवाडा में पांचों मन्दिरों की विशेषता यह है कि उनकी छत, द्वार, तोरण, सभा-मण्डपों पर उत्कीर्ण शिल्प एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। हर पत्थर और खम्भे पर नई नक्काशी संगमरमर पर जादूगरी की अनूठी मिसाल है, जिसे पर्यटक अपलक देखता ही रहता है। यहां की कला में जैन संस्कृति का वैभव और भारतीय संस्कृति के दर्शन होते हैं।

पांच मन्दिरों के समूह में दो विशाल मन्दिर हैं और तीन उनके अनुपूरक मन्दिर हैं। सभी मन्दिरों का शिल्प सौन्दर्य एक से बढकर एक है। मन्दिरों के विभिन्न प्रकोष्ठों की छतों पर लटकते, झूमते गुम्बज, स्थान स्थान पर गढी गई सरस्वती, अम्बिका, लक्ष्मी शंखेश्वरी, पदमावती, शीतला आदि देवियों की दर्शनीय छवियां, शिल्पकारों की छेनी की निपुणता के साक्ष्य हैं। यहां उत्कीर्ण मूर्तियों और कलाकृतियों में शायद ही कोई ऐसा अंश हो जहां कलात्मक पूर्णता के चिन्ह न दिखते हों।

शिलालेखों और ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार 600-800 ई.पू. में आबू नागा जनजाति का केन्द्र था। महाभारत में आबू का महर्षि वशिष्ठ के आश्रम के रूप में उल्लेख है। जैन शिलालेखों के अनुसार जैन धर्म के प्रतिष्ठापक भगवान महावीर ने भी इस प्रदेश को अपना दर्शन लाभ और यहां के वासियों को अपना आशीर्वाद दिया। देलवाडा के जैन मन्दिरों में सबसे बडा मन्दिर विमल वासाही है। इस मन्दिर का निर्माण गुजरात के चालुक्य राजा भीमदेव के मन्त्री और सेनापति विमल शाह ने 1031 ई. में पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूरी होने पर करवाया था। तीन हजार शिल्पियों ने 14 वर्षों में इसे मूर्त रूप दिया। इस मन्दिर में कुल 57 देवरियां हैं जिनमें तीर्थंकरों व अन्य देवी देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मन्दिर की प्रत्येक दीवार, स्तम्भ, तोरण, छत, गुम्बद आदि पर बारीक नक्काशी और प्रस्तर शिल्प का सौन्दर्य बिखरा हुआ है। मन्दिर का सबसे उत्कृष्ट कला से भरपूर भाग रंग मंडप है जिसके बारह अलंकृत स्तम्भों और तोरणों पर आश्रित एक विशाल गोल गुम्बज है जिसमें हाथी, घोडे, हंस, वाद्य यंत्रों सहित नर्तकों के दल सहित शोभायात्राओं की ग्यारह गोलाकार पंक्तियां हैं। प्रत्येक स्तम्भ के ऊपर वाद्य वादन करती ललनाएं और ऊपर की ओर कई प्रकार के वाहनों पर आरूढ सोलह विद्या देवियों की आकर्षक प्रतिमाएं हैं।

98 फीट लम्बे और 42 फीट चौडे विमल वासाही मन्दिर के निर्माण पर उस दौर में भी लगभग 19 करोड रुपये खर्च हुए थे। देलवाडा मन्दिर समूह के दूसरे मुख्य मन्दिर लूणावसाही का निर्माण वस्तुपाल और गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव द्वितीय के मन्त्री और उनके भाई तेजपाल ने 1230 ई. में करवाया। इस अद्वितीय मन्दिर में जैनियों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ जी की मूर्ति स्थित है। इस देवालय में देवरानी-जेठानी के गोखडे निर्मित हैं जिनमें भगवान आदिनाथ और शांतिनाथ की प्रतिमाएं विराजमान हैं। दोनों ही गोखडे शिल्पियों की बेजोड कला के जीवंत प्रतीक हैं। इस मन्दिर की परिक्रमा में 50 देवरियां हैं। प्रत्येक देवरी की कला अद्वितीय है।

देलवाडा मन्दिर परिक्षेत्र में ही पीतलहर आदीश्वर मन्दिर, खरतरसाही पार्श्वनाथ मन्दिर और भगवान महावीर स्वामी का मन्दिर स्थित है। महावीर स्वामी मन्दिर सबसे छोटा और बहुत ही सादा मन्दिर है। इसका निर्माण 1582 ई. में करवाया गया। इसी प्रकार पीतलहर मन्दिर का निर्माण गुजरात के भीमशाह ने संवत 1374 ई. से 1433 ई. के मध्य करवाया। बाद में सुन्दर और गदा नामक व्यक्तियों ने इसका जीर्णोद्धार करवा इसमें ऋषभदेव की पंच धातु की मूर्ति स्थापित करवाई। पीतल से बनी इस मूर्ति का वजन 108 मन (एक मन में 40 किलो) और ऊंचाई 41 इंच है। इसके अलावा यहां एक चौमुखा मन्दिर भी है, जिसे खरातावसाही मन्दिर कहा जाता है। इसमें पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति विराजमान है। तीन मंजिले इस मन्दिर का निर्माण 15वीं सदी के आसपास माना जाता है। भूरे पत्थर से बना यह मन्दिर अपने शिखर सहित देलवाडा के सभी मन्दिरों में सबसे ऊंचा है। देलवाडा मन्दिर समूह के पांच श्वेताम्बर मन्दिरों के साथ ही यहां भगवान कुंथुनाथ का दिगम्बर जैन मन्दिर भी है। सन 1449 में मेवाड के महाराणा कुम्भा ने यहां काले पत्थर का एक ऊंचा स्तम्भ बनवाया था। देलवाडा के मन्दिर विस्मयकारी सुकोमलता, सुन्दरता और उत्कृष्टता से अलंकृत भारतीय शिल्पकला का मानव जाति को एक अनूठा उपहार है।


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बुधवार, अप्रैल 20, 2011

हिमालय का खूबसूरत नजारा- संदकफू

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 26 अगस्त 2007 को प्रकाशित हुआ था।

लेख: उपेन्द्र स्वामी कश्मीर से अरुणाचल तक फैली हिमालय श्रंखलाओं की सबसे बडी खूबसूरती यह है कि इन्हें आप जहां से देखो, वहां से उनका नया रूप नजर आता है। हर जगह अपने आप में बेमिसाल, जिसे कुदरत ने ढेरों नियामतें बख्शी हों।

कुदरत जब अपनी खूबसूरती बिखेरती है तो सीमाएं नहीं देखती। यही बात उन निगाहों के लिये भी कही जा सकती है जो उस खूबसूरती का नजारा लेती हैं। हम यहां बात केवल देशों की सीमाओं की नहीं कर रहे, बल्कि धरती व आकाश की सीमाओं की भी कर रहे हैं। हिमालय ऐसी खूबसूरती से भरा पडा है। इस बार हम जिक्र कर रहे हैं संदकफू का जो पश्चिम बंगाल से सिक्किम तक फैली सिंगालिला श्रंखलाओं की सबसे ऊंची चोटी है।

संदकफू की ऊंचाई समुद्र तल से 3611 मीटर है। यहां जाने का रोमांच जितना इतनी ऊंचाई पर जाने से है, वही इस बात से भी है कि यह वो जगह है जहां से आप दुनिया की पांच सबसे ऊंची चोटियों में से चार को एक साथ देख सकते हैं। ये हैं दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउण्ट एवरेस्ट (8848 मीटर), तीसरे नम्बर की और भारत में सबसे ऊंची कंचनजंघा (8585 मीटर), चौथे नम्बर की लाहोत्से (8516 मीटर) और पांचवे नम्बर की मकालू (8463 मीटर)।खासतौर पर कंचनजंघा व पण्डिम चोटियों का नजारा तो बेहद आकर्षक होता है। यही हर साल देश-विदेश से रोमांच प्रेमियों को यहां खींच लाता है। यही आकर्षण है कि खुले मौसम में सूरज की पहली लाल किरण इन बर्फीली चोटियों पर पडते देखने के लिये सवेरे चार बजे से सैलानी हाड जमाती ठण्ड में भी मुस्तैद नजर आते हैं।

कुछ-कुछ ऐसा ही आकर्षण मनयभंजन से संदकफू पहुंचने के रास्ते का भी है। पूरा रास्ता ठीक भारत-नेपाल सीमा के साथ-साथ है, या यूं कहें कि ये रास्ता ही सीमा है। आपके पांव कब नेपाल में हैं और कब भारत में, यह आपको पता ही नहीं चलेगा। दिन में चलेंगे तो भारत में, रात में रुकेंगे तो नेपाल में। थोडी-थोडी दूर पर लगे पत्थरों के अलावा न सीमा के कोई निशान हैं और न कोई पहरुए। काश! सारी सीमाएं ऐसी हो जायें।

इस रास्ते की हर बात में कुछ खास है, चाहे वो संदकफू तक ले जाने वाली लैण्डरोवर हो जो देखने में किसी संग्रहालय से लाई लगती है, या यहां के सीधे-सादे मेहमाननवाज लोग हों जो ज्यादातर नेपाल से हैं लेकिन आर्थिक-सामाजिक तौर पर भारत से भी गहरे जुडे हैं, या फिर यहां की संस्कृति हो जो बौद्ध धर्म की अनुयायी है। पूरे इलाके में फैले गोम्पा व मठ इसके गवाह हैं।

खास बात यहां के बादलों में है जो पूरे रास्ते आपके साथ आंख-मिचौनी खेलते रहते हैं- इस कदर कि इन मेघों के चलते गांवों के नाम मेघमा पड जाते हैं। खास बात इस बात में है कि मनयभंजन से निकलकर चित्रे, तुंबलिंग (टोंगलू), कालापोखरी, संदकफू, फालुत, गुरदुम व रिंबिक हर जगह पर आपको शेरपाओं के लॉज मिल जायेंगे जहां आपको बेहद किफायती दामों पर (दाम तय करवाना आपके गाइड पर भी निर्भर करता है) ठहरने की साफ-सुथरी, गरम जगह और घर जैसा खाना मिल जायेगा।

खास चीज तुम्बा भी है जो सीधे लफ्जों में कहा जाये तो इस इलाके की देसी बीयर है। इसे बनाने और पीने, दोनों का तरीका इतना अनूठा है कि आप इसका स्वाद लेने से खुद को रोक नहीं पायेंगे। खानपान की बात करें तो खास चीज यहां की चाय है जो पहाडों पर तमाम बागानों में उगाई जाती है और वह सुखाया गया पनीर भी जो याक के दूध से बनाया जाता है। यहां जायें तो थुप्पा व मोमो का स्वाद भी लेना न भूलें क्योंकि वह स्वाद आपको अपने शहर में नहीं मिलेगा।

कैसे पहुंचें

-संदकफू जाने का असली सफर मनयभंजन से शुरू होता है। -मनयभंजन जाने के दो सडक मार्ग हैं- पहला सीधा जलपाईगुडी से जो मिरिक होते हुए जाता है। इस रास्ते पर न्यू जलपाईगुडी से मनयभंजन की दूरी नब्बे किलोमीटर है। लेकिन, चूंकि इस रास्ते पर आने-जाने के साधन बहुत सीमित हैं इसलिये लोग दूसरे रास्ते का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं जो घूम होते हुए है। -न्यू जलपाईगुडी से दार्जीलिंग के रास्ते पर घूम शहर दार्जीलिंग से नौ किलोमीटर पहले है। इस रास्ते पर छोटी लाइन की ट्रेन सडक के साथ-साथ चलती है, इसलिये घूम सडक व ट्रेन दोनों से पहुंचा जा सकता है। -घूम से मनयभंजन का सफर लगभग एक घण्टे का है। इन रास्तों पर बसें कम ही मिलेंगी। आने-जाने का ज्यादा सुलभ व किफायती साधन जीप है। न्यू जलपाईगुडी या दार्जीलिंग से पूरी जीप भी बुक कराई जा सकती है या फिर प्रति सवारी सीट भी इस रास्ते की जीपों में आप ले सकते हैं। -न्यू जलपाईगुडी रेलमार्ग से दिल्ली, हावडा व गुवाहाटी से सीधा जुडा है। सबसे निकटवर्ती हवाई अड्डा सिलीगुडी के पास बागडोगरा है।

खास बातें

-संदकफू सिंगालिला राष्ट्रीय पार्क के दायरे में है। बारिश के तीन महीनों में यानी 15 जून से 15 सितम्बर तक यह पार्क सैलानियों के लिये बन्द रहता है। -बारिश से पहले यानी मई-जून में जाने वालों को रास्ते में गर्मी का एहसास हो सकता है। लेकिन सितम्बर के बाद से मौसम में ठण्डक बढती जायेगी। संदकफू में ऊंचाई की वजह से मौसम हमेशा ठण्डा मिलेगा। सर्दियों में यहां खासी बर्फ भी गिरती है। वैसे भी पहाडों पर मौसम पलभर में बदलता है। एक पल में धूप में आपको गर्मी लगेगी तो दूसरे ही पल बादल छाते ही आप ठिठुरने लगेंगे। इसलिये अपने साथ कपडों का पूरा इंतजाम रखें। -रास्ते में अपने साथ एक गाइड जरूर रखें। यह न केवल रास्ता दिखाने व रुकने की जगह बताने के लिये बल्कि राष्ट्रीय पार्क होने की वजह से भी नियमानुसार जरूरी है। मनयभंजन से ये गाइड मिल जायेंगे। इनकी दरें भी तय हैं- 250 से 300 रुपये प्रतिदिन। सामान ज्यादा हो तो पोर्टर भी करना होगा। थोडा सामान तो गाइड भी उसी फीस में अपने साथ उठा लेता है। स्थानीय गाइड तमाम अनजान मुश्किलों में भी मददगार रहते हैं।

रास्ता व रोमांच -मनयभंजन से संदकफू 31 किलोमीटर का रास्ता बेहद खूबसूरत है। रास्ते की खूबसूरती प्राकृतिक तो है ही, उसे तय करने के तरीके में भी है। -मनयभंजन से संदकफू होते हुए फालुत तक का रास्ता सडकनुमा है। लेकिन यह सीधी साधी सडक नहीं बल्कि ज्यादातर जगहों पर खडी चढाई वाली और पूरे रास्ते पथरीली है। -माना जा सकता है कि सडक है तो कोई वाहन भी चलाता होगा। सही है, और यह वाहन भी संदकफू जाने के अनुभवों में से सबसे खास है। यह वाहन यानी जीप है- लैंडरोवर, पचास साल से भी पुराना ब्रिटिश मॉडल। इसे इस रास्ते पर चलते देखना हैरतअंगेज है तो इस पर बैठकर सफर करना साहस का काम। इसीलिये जो शारीरिक रूप से सक्षम हैं, वे केवल एक दिन या कुछ दूरी का सफर इस लैंडरोवर में करते हैं ताकि इसका अनुभव ले सकें। -इस रास्ते पर ट्रेकिंग ज्यादा कष्टदायक नहीं क्योंकि फालुत तक का सफर लैंडरोवर के रास्ते पर ही होता है। लेकिन वापसी का सफर जंगल के रास्ते होता है। संदकफू या फालुत से वापसी करने वाले जंगल के रास्ते रिम्बिक तक उतरते हैं।

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मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

गया- पितरों की स्मृति का तीर्थ

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 26 अगस्त 2007 को प्रकाशित हुआ था।

हिंदू मान्यताओं में श्राद्ध व तर्पण का काफी महत्व है। बात पिण्डदान की हो तो गया का नाम सबसे ऊपर आता है। गया के महत्व के बारे में बता रहे हैं डॉ. राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’:

‘पुरातन प्रज्ञा के प्रदेश- बिहार’ की राजधानी पटना से तकरीबन 92 किलोमीटर दूरी पर स्थित और मोक्ष तोया फल्गु के किनारे शोभायमान गया भारत का प्राचीन, ऐतिहासिक व समुचन तीर्थ है। पांचवां धाम, मोक्ष स्थली, पिण्डदान भूमि, विष्णुधाम, प्राच्य युगीन तीर्थ, स्वर्गारोहण्य द्वार आदि कितने ही नामों से सम्बोधित गया नगरी में हर साल पितृपक्ष के दौरान विशाल मेला लगता है। श्राद्ध, पिण्डदान व तर्पण जैसे धार्मिक कर्म भारत में कई जगह किये जाने का विधान है पर पितरों के नाम पर विशाल मेले का आयोजन गया में ही होता है। जिसे श्रद्धालु आदरस्वरूप गयाजी कहते हैं। यूं तो गया में सालों भर भक्तों का आगमन बना रहता है पर साल में 15 दिन का पितृपक्ष पितरण कार्य के लिये सर्वथा उपयुक्त है। यही कारण है कि न केवल देश बल्कि विदेश में रह रहे हिंदू भी उस दौरान गया अवश्य आते हैं।

भारत के प्राचीन नगरों में एक

गया को दुनिया के प्राचीनतम नगरों में एक माना जाता है। विद्वजनों की राय में किसी स्थान की प्राचीनता का सर्वप्रमुख प्रमाण वहां की मिट्टी, नदी, जंगल, पहाड आदि में निहित होता है। गया के चारों ओर सप्त पर्वत- रामशिला, प्रेतशिला, ब्रह्मयोगी, नागकूट, भस्मकूट, मुरली व धेनुतीर्थ और लगभग 42 किलोमीटर दूरी पर स्थित ऐतिहासिक ‘बराबर पर्वत’ में पाषाण युग में मानव निवास के चिन्ह हैं। सोनपुर, ककोलत व हसराकोल का इतिहास भी इस तथ्य का मूक गवाह है कि अति प्राचीन काल से ही यहां इंसानी बसावट रही। आदिम युग में कोल जनजाति का देशभर में जहां-जहां निवास रहा उनमें गया के अरण्यादि क्षेत्र प्रमुख हैं।

गया की फल्गु नदी भी इसकी प्राचीनता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। भूगोलवेत्ताओं की मानें तो फल्गु का काल सरस्वती का समकालीन है। गया के अक्षयवट को संसार का सबसे पुराना जीवित पेड कहा जाता है। वायु पुराण, अग्निपुराण, गरुडपुराण व महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि पितरणों के तरन तारण के लिये इसका रोपण और उद्धार ब्रह्मा जी ने यहां किया था। गया की प्राचीनता के स्पष्ट प्रमाण यहां के तीन प्रधान देव स्थल भी हैं। श्री विष्णु पद में चरण की पूजा, शक्तिपीठ मां मंगला गौरी में मां के पंचपयोधन (स्तन द्वय) की और भैरव स्थान मन्दिर में भैरोंनाथ के कपाल की पूजा की जाती है। गया में भोले-भण्डारी शंकर एक नहीं चार-चार पीढी के रूप में निवास करते हैं। यह अति प्राचीन तीर्थ में ही सम्भव है जो हरेक कल्प में मौजूद रहा हो। गया में शंकर जी के इन चार पीढियों में क्रमानुसार वृद्ध परपिता महेश्वर, परम पिता महेश्वर, परमिता महेश्वर और पितामहेश्वर प्राच्य काल से पूजित हैं जो अक्षयवट, लखनपुरा, फल्गुनतट और पितामहेश्वर मोहल्ले में विद्यमान हैं।

गया के मूल निवासी ‘गयापाल’ या ‘गयावाल’ कहे जाते हैं जिन्हें ब्रह्मकल्पित बताया गया है। ये अपने को प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं और अपने आप को सभी तीर्थ विप्रों में सबसे आगे मानते हैं। उनका मत है कि ब्रह्मा जी ने सबसे पहले इसी तीर्थ की स्थापना व विकास किया। इस कारण इस तीर्थ के ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों से पुराने हुए। भैरवी चक्र पर अवस्थित गया को प्राच्य काल में आदि गया कहा गया है जो इसकी प्राचीनता का प्रमाण है।

गयासुर और गया

देवासुर संग्राम की कथा प्रायः हरेक युग, हर काल में मिलती है। गयासुर देवप्रवृत्ति से महिमामण्डित विष्णु का परम भक्त था। असुर वंश में उत्पन्न गय जाति से भले ही असुर था पर स्वभाव से देवताओं जैसा। माना जाता है कि इसमें राक्षसी भाव के तत्व पूर्णतया गौण हो गये थे। धर्मग्रंथों के अनुसार गयासुर सवा सौ योजन ऊंचा और साठ योजन मोटा था, जिसके पिता त्रिपुरासुर और माता प्रभावती थीं। विवरण मिलता है कि गयासुर के पिता त्रिपुरासुर के आतंक से भगवान शंकर ने उसका वध कर दिया था। अब इस बात की जानकारी युवावस्था आते आते गयासुर को मिली तो उसने अपने पिता के कृत्य और उसके परिणाम को जान-समझ करके ठीक विपरीत आचरण धारण किया। इस प्रकार जन कल्याण, मानव सहायता, पूजा-पाठ, धर्म-कर्म गयासुर के जीवन का अंग बन गया। गयासुर ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे पर लगातार हजार वर्षों तक निराहार खडे रहकर दुर्गम कोलाहल पर्वत पर तपस्या कर विष्णु का दिल जीत लिया।

गयासुर के तेज से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। अब विष्णु को अपने भक्त को दर्शन देना ही पडा। जैसे ही गयासुर ने अपने समक्ष भगवान को खडा देखा, भावविभोर हो मस्तक झुका लिया। परम्परागत विष्णु भगवान ने उससे वर मांगने को कहा। इस पर गयासुर ने प्रसन्न भाव से कहा- ‘प्रभु, आप प्रसन्न हैं तो यह आशीर्वाद दीजिये कि जो कोई प्राणी मेरा शरीर स्पर्श कर ले, वह शान्ति-विश्रान्ति को प्राप्त हो मोक्षाधिकारी बने।’ विष्णु के तथास्तु कहने के साथ ही गयासुर का शरीर परम पवित्र हो गया और उसके स्पर्श मात्र से ही जीवधारी कल्याण को प्राप्त होने लगे। स्वर्गलोक में खलबली मच गयी। देवताओं में सहमति बनी कि अगर गयासुर के शरीर को स्थिर कर दिया जाये तो सृष्टि का क्रम यथावत बना रहेगा। ब्रह्मा जी को इस यज्ञ का प्रधान पुरुष बनाया गया, जिसमें सभी देवों का आगमन हुआ। निर्णयानुसार ब्रह्मा जी गयासुर से बोले- ‘भम्रराज! मैंने कोटि-कोटि भूमि का भ्रमण व निरीक्षण किया पर तुम्हारे शरीर की तरह पवित्र कोई भूमि नहीं। समस्त देवताओं की इच्छा है कि तुम्हारी पुण्यकारी काया पर ही सृष्टि के सफल संचालनार्थ होने वाले यज्ञ का आयोजन हो, तेरा क्या विचार है?’ ब्रह्मा के मुख से इन बातों को सुन गयासुर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया कि हमारे शरीर पर यज्ञ किया जाये। गयासुर उत्तर की ओर सिर और दक्षिण की तरफ पैर करके लेट गया और उस पर समस्त देवी-देवता आरूढ हो गये। यज्ञ पूर्णाहूति की ओर अग्रसर था पर गयासुर का शरीर स्थिर होने का नाम ही नहीं ले रहा था। शरीर के कम्पायमान रहने से यज्ञ में बाधा आ रही थी। ऐसे में समस्त देवताओं ने विष्णु का आह्वान किया। विष्णु धर्म-शिला और गदा लेकर जैसे ही गयासुर के वक्ष स्थल पर विराजमान हुए कि गयासुर उठ खडा हुआ। उसने कहा-‘प्रभु! आपने इतना कष्ट क्यों किया? आप कह देते तो मैं हमेशा के लिये प्राण शून्य हो जाता।’ गयासुर के इस भक्ति-भाव को देखकर विष्णु ने उससे फिर वर मांगने को कहा। इस पर गयासुर ने मांगा कि यह पांच कोस की भूमि मेरे नाम से जानी जाये। साथ ही जो कोई प्राणी यहां श्राद्ध-पिण्डदान करे, उसका व उसके समस्त पूर्वजों का उद्धार हो। कहते हैं तभी से विष्णु भगवान के आशीर्वाद से गया में श्राद्ध पिण्डदान का आरम्भ हुआ जो आज भी निर्बाध रूप से जारी है।

कैसे जायें

गया जाने के लिये आप हवाई, रेल और सडक तीनों मार्गों का उपयोग कर सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बोधगया में है। वहीं गया जंक्शन देश के प्रमुख शहरों से रेलमार्ग से जुडा है। गया से नई दिल्ली, नागपुर, पटना, हावडा, रांची, मुम्बई आदि जाने की गाडी उपलब्ध हैं। बस से यहां से अम्बिकापुर, राउरकेला, देवघर, भागलपुर, वाराणसी जाने की आरामदायक सुविधा है। गया में बिहार राज्य पथ परिवहन निगम का पुराना डिपो है जहां से लम्बी दूरी की बसें चलती हैं। नगर में आंतरिक परिवहन के साधनों में रिक्शा, टेम्पो व टमटम प्रमुख हैं। यात्रियों को चाहिये कि गन्तव्य स्थान का उचित भाडा जान समझ कर ही उसका उपयोग करें। पितृपक्ष के दिनों में गया नगर में स्थान-स्थान पर प्रशासनिक और स्वयंसेवी संस्थाओं के सहायता केन्द्र बने होते हैं जिनमें यात्रीगण सहायता प्राप्त कर सकते हैं।

गया के दर्शनीय स्थल

विष्णु पद मन्दिर, मंगला गौरी मन्दिर, बगला स्थान, राजेन्द्र टावर, गौडीय मठ मन्दिर, जामा मस्जिद, दुखहरणी मन्दिर व तोरण द्वार, भैरो स्थान मन्दिर, रविन्द्र सरोवर, ब्रह्मयोनि पर्वत, मगध सांस्कृतिक केन्द्र व संग्रहालय, आकाशगंगा, रामशिला और ठाकुरबाडी, सेंट डेविड चर्च, पीर मंसूर, गुरू सिंह सभा गुरुद्वारा, प्राचीन जैन मन्दिर, रामकृष्ण आश्रम, वैष्णव श्मशान, गौरक्षणी (गया गोशाला), फल्गु नदी पर बने घाट

आसपास के ऐतिहासिक-पौराणिक स्थल

बोधगया- 11 किलोमीटर, बौद्ध मन्दिर व ज्ञान प्राप्ति स्थल डुगेश्वरी- 14 किलोमीटर, तपस्या गुफा धर्मारण्य- 14 किमी, त्रिनद संगम सुजातागढ- 13 किमी, प्राचीन विशाल टीला व स्तूप बराबर पर्वत- 42 किमी, सात-सात गुफा कोंच- 32 किमी, कोचेश्वर महादेव मन्दिर कुर्किहार- 33 किमी, पुरास्थल व मन्दिर ककोलत जलप्रपात- 76 किमी, प्राकृतिक झरना गुनेरी- 42 किमी, तथागत का ठहराव स्थल अपसढ- 61 किमी, उत्तर गुप्तकालीन राजधानी टिकारी किला- 30 किमी, मध्यकालीन विशाल किला कश्यपा- 32 किमी, तारा मन्दिर व कश्यप ऋषि का स्थान मानपुर- 6 किमी, राजा मानसिंह स्मृति भूमि देव- 71 किमी, विशाल सूर्व मन्दिर राजगीर- 72 किमी, जलकुण्ड, विश्व शान्ति स्तूप नालन्दा- 83 किमी, विश्वविद्यालय व संग्रहालय पावापुरी- 78 किमी, महावीर निर्वाण स्थल

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सोमवार, अप्रैल 18, 2011

भीमाकाली मन्दिर- परम्परा की शक्ति

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 26 अगस्त 2007 को प्रकाशित हुआ था।

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से 180 किलोमीटर दूर सराहन में स्थित है भीमाकाली मन्दिर, जो 51 शक्तिपीठों में से एक है। यह देवी तत्कालीन बुशहर राजवंश की कुलदेवी है जिसका पुराणों में उल्लेख मिलता है। प्रेम नाथ नाग का आलेख:

समुद्र तल से 2165 मीटर की ऊंचाई पर बसे सराहन गांव को प्रकृति ने पर्वतों की तलहटी में अत्यन्त सुन्दर ढंग से सुसज्जित किया है। सराहन को किन्नौर का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। यहां से 7 किलोमीटर नीचे सभी बाधाओं पर विजय पाकर लांघती और आगे बढती सतलुज नदी है। इस नदी के दाहिनी ओर हिमाच्छादित श्रीखण्ड पर्वत श्रंखला है। समुद्र तल से पर्वत की ऊंचाई 18500 फुट से अधिक है। माना जाता है कि यह पर्वत देवी लक्ष्मी के माता-पिता का निवास स्थान है। ठीक इस पर्वत के सामने सराहन के अमूल्य सांस्कृतिक वैभव का प्रतीक भीमाकाली मन्दिर अद्वितीय छटा के साथ स्थित है।

राजाओं का यह निजी मन्दिर महल में बनवाया गया था जो अब एक सार्वजनिक स्थान है। मन्दिर के परिसर में भगवान रघुनाथ, नरसिंह और पाताल भैरव (लांकडा वीर) के अन्य महत्वपूर्ण मन्दिर भी हैं। लांकडा वीर को मां भगवती का गण माना जाता है। यह पवित्र मन्दिर लगभग सभी ओर से सेबों के बागों से घिरा हुआ है और श्रीखण्ड की पृष्ठभूमि में इसका सौंदर्य देखते ही बनता है।

सराहन गांव बुशहर रियासत की राजधानी रहा है। इस रियासत की सीमाओं में पूरा किन्नर देश आता था। मान्यता है किन्नर देश ही कैलाश है। बुशहर राजवंश पहले कामरू से सारे प्रदेश का संचालन करता था। राजधानी को स्थानांतरित करते हुए राजाओं ने शोणितपुर को नई राजधानी के रूप में चुना। कल का शोणितपुर ही आज का सराहन माना जाता है। अंत में राजा रामसिंह ने रामपुर को राज्य की राजधानी बनाया। बुशहर राजवंश की देवी भीमाकाली में अटूट श्रद्धा है। सराहन में आज भी राजमहल मौजूद है।

एक पौराणिक गाथा के अनुसार शोणितपुर का सम्राट वाणासुर उदार दिल और शिवभक्त था जो राजा बलि के सौ पुत्रों में सबसे बडा था। उसकी बेटी उषा को पार्वती से मिले वरदान के अनुसार उसका विवाह भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से हुआ। परन्तु इससे पहले अचानक विवाह के प्रसंग को लेकर वाणासुर और श्रीकृष्ण में घमासान युद्ध हुआ था जिसमें वाणासुर को बहुत क्षति पहुंची थी। अंत में पार्वती जी के वरदान की महिमा को ध्यान में रखते हुए असुरराज परिवार और श्रीकृष्ण में सहमति हुई। तदोपरान्त पिता प्रद्युम्न और पुत्र अनिरुद्ध के वंशजों की राज परम्परा चलती रही।

महल में स्थापित भीमाकाली मन्दिर के साथ अनेक पौराणिक कथाएं जुडी हैं जिनके अनुसार आदिकाल मन्दिर के स्वरूप का वर्णन करना कठिन है परन्तु पुरातत्ववेत्ताओं का अनुमान है कि वर्तमान भीमाकाली मन्दिर सातवीं-आठवीं शताब्दी के बीच बना है। भीमाकाली शिवजी की अनेक मानस पुत्रियों में से एक है। मत्स्य पुराण में भीमा नाम की एक मूर्ति का उल्लेख आता है। एक अन्य प्रसंग है कि मां पार्वती जब अपने पिता दक्ष के यज्ञ में सती हो गई थीं तो भगवान शिव ने उन्हें अपने कंधे पर उठा लिया था। हिमालय में जाते हुए कई स्थानों पर देवी के अलग-अलग अंग गिरे। एक अंग कान शोणितपुर में गिरा और भीमाकाली प्रकट हुई। मन्दिर के ब्राह्मणों के अनुसार पुराणों में वर्णन है कि कालांतर में देवी ने भीम रूप धारण करके राक्षसों का संहार किया और भीमाकाली कहलाई।

कहा जाता है कि आदि शक्ति तो एक ही है लेकिन अनेक प्रयोजनों से यह भिन्न-भिन्न रूपों और नामों में प्रकट होती है जिसका एक रूप भीमाकाली है। सराहन में एक ही स्थान पर भीमाकाली के दो मन्दिर हैं। प्राचीन मन्दिर किसी कारणवश टेढा हो गया है। इसी के साथ एक नया मन्दिर पुराने मन्दिर की शैली में बनाया गया है। यहां 1962 में देवी मूर्ति की स्थापना हुई। इस मन्दिर परिसर में तीन प्रांगण आरोही क्रम से बने हैं जहां देवी शक्ति के अलग-अलग रूपों को मूर्ति के रूप में स्थापित किया गया है। देवी भीमा की अष्टधातु से बनी अष्टभुजा वाली मूर्ति सबसे ऊपर के प्रांगण में है।

भीमाकाली मन्दिर हिंदु और बौद्ध शैली में बना है जिसे लकडी और पत्थर की सहायता से तैयार किया गया है। पगोडा आकार की छत वाले इस मन्दिर में पहाडी शिल्पकारों की दक्षता देखने को मिलती है। द्वारों पर लकडी की सुन्दर छिलाई करके हिंदू देवी-देवताओं के कलात्मक चित्र बनाए गये हैं। फूल पत्तियां भी दर्शाए गये हैं। मन्दिर की ओर जाते हुए जिन बडे बडे दरवाजों से गुजरना पडता है उन पर चांदी के बने उभरे रूप में कला के सुन्दर नमूने देखे जा सकते हैं। भारत के अन्य भागों की तरह सराहन में भी देवी पूजा बडी धूमधाम से की जाती है, विशेषकर चैत्र और आश्विन नवरात्रों में। मकर संक्रांति, रामनवमी, जन्माष्टमी, दशहरा और शिवरात्रि आदि त्यौहार भी बडे हर्षोल्लास व श्रद्धा से मनाये जाते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि भीमाकाली की प्राचीन मूर्ति पुराने मन्दिर में ही है। हर कोई उसके दर्शन नहीं कर सकता।

भीमाकाली मन्दिर हिंदु और बौद्ध शैली में बना है जिसे लकडी और पत्थर की सहायता से तैयार किया गया है। पगोडा आकार की छत वाले इस मन्दिर में पहाडी शिल्पकारों की दक्षता देखने को मिलती है। द्वारों पर लकडी की सुन्दर छिलाई करके हिंदू देवी-देवताओं के कलात्मक चित्र बनाए गये हैं। फूल पत्तियां भी दर्शाए गये हैं। मन्दिर की ओर जाते हुए जिन बडे बडे दरवाजों से गुजरना पडता है उन पर चांदी के बने उभरे रूप में कला के सुन्दर नमूने देखे जा सकते हैं। भारत के अन्य भागों की तरह सराहन में भी देवी पूजा बडी धूमधाम से की जाती है, विशेषकर चैत्र और आश्विन नवरात्रों में। मकर संक्रांति, रामनवमी, जन्माष्टमी, दशहरा और शिवरात्रि आदि त्यौहार भी बडे हर्षोल्लास व श्रद्धा से मनाये जाते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि भीमाकाली की प्राचीन मूर्ति पुराने मन्दिर में ही है। हर कोई उसके दर्शन नहीं कर सकता।

हिमाचल प्रदेश के भाषा व संस्कृति विभाग के एक प्रकाशन के अनुसार बुशहर रियासत तो बहुत पुरानी है ही, यहां का शैल (स्लेट वाला पत्थर) भी अत्यंत पुराना है। भूगर्भवेत्ताओं के अनुसार, यह शैल एक अरब 80 करोड वर्ष का है और पृथ्वी के गर्भ में 20 किलोमीटर नीचे था। ठण्डा, शीतल जलवायु वाला स्थान सराहन आज भी शायद देवी कृपा से व्यवसायीकरण से बचा हुआ है। तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को सुगमता से यहां ठहरने और खाने-पीने की सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं। हिमपात के समय भले ही कुछ कठिनाइयां आयें अन्यथा भीमाकाली मन्दिर में वर्षभर जाया जा सकता है। शिमला से किन्नौर की ओर जाने वाले हिंदुस्तान-तिब्बत राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर 22 पर चलें तो एक बडा स्थान रामपुर बुशहर आता है जहां से सराहन 44 किलोमीटर दूर है। कुछ आगे चलने पर ज्यूरी नामक स्थान से सराहन के लिये एक अलग रास्ता जाता है। ज्यूरी से देवी मन्दिर की दूरी 17 किलोमीटर है।

एक नजर 1. शिमला से सराहन की दूरी 180 किलोमीटर। 2. स्थानीय बस सेवा और टैक्सियां उपलब्ध। 3. हवाई रास्ते से शिमला तक पहुंचा जा सकता है। 4. मन्दिर परिसर में बने साफ-सुथरे कमरों में ठहरने की व्यवस्था है। 5. सरकारी होटल श्रीखण्ड में उपयुक्त दामों पर ठहरने की व्यवस्था उपलब्ध। 6. अन्य स्थान सराहन रिजॉर्ट्स आदि।

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